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भारतीय सेक्युलरिज़्म की वास्तविकता और उसकी विकृत व्याख्या|

भारतीय सेक्युलरिज़्म की वास्तविकता और उसकी विकृत व्याख्या|


भारत एक ऐसा देश है जहाँ धर्म, संस्कृति और परंपरा लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यहाँ सैकड़ों पंथ, संप्रदाय, और जीवन-दर्शन एक साथ पनपे हैं। ऐसे देश में “सेक्युलरिज़्म” का अर्थ होना चाहिए — सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टि और निष्पक्षता।
लेकिन दुख की बात है कि आज भारत में “सेक्युलरिज़्म” का अर्थ धीरे-धीरे बदलकर “हिंदू परंपराओं के विरोध और अन्य धर्मों के प्रति अति सहानुभूति” बनता जा रहा है। यही विकृति आज सामाजिक असंतुलन और वैचारिक भ्रम का कारण बनी है।
सेक्युलरिज़्म का वास्तविक अर्थ

“सेक्युलर” शब्द का शाब्दिक अर्थ है — “धर्म से पृथक” या “धर्म के प्रति निष्पक्ष।”
भारतीय संविधान के अनुसार, राज्य का कोई अपना धर्म नहीं होगा, और वह सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करेगा, चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों।

संविधान निर्माताओं ने इसे इसीलिए अपनाया ताकि भारत जैसे विविधता-भरे समाज में समानता, स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व कायम रह सके।
अर्थात् —

“सेक्युलरिज़्म का उद्देश्य किसी धर्म का विरोध नहीं, बल्कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना था।”
लेकिन आज क्या हो गया है?

स्वतंत्रता के बाद धीरे-धीरे “सेक्युलरिज़्म” की राजनीतिक व्याख्या बदलती गई।
कुछ कारण हैं जिनसे लोगों के मन में यह भावना घर कर गई कि सेक्युलरिज़्म का मतलब हिंदू धर्म की परंपराओं को नीचा दिखाना और दूसरों का तुष्टिकरण करना बन गया है।
1. राजनीतिक तुष्टिकरण

  • कुछ राजनीतिक दलों ने “सेक्युलरिज़्म” को वोट बैंक की राजनीति का उपकरण बना लिया।
  • उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की आड़ में गैर-हिंदू समुदायों को विशेष सुविधाएँ दीं — कभी वोट के लिए, कभी सत्ता के लिए।
  • वहीं दूसरी ओर, हिंदू परंपराओं और प्रतीकों को ‘सांप्रदायिक’ बताकर उपेक्षित किया गया।
  • इससे आम जनता के मन में यह धारणा गहराई कि सेक्युलरिज़्म का अर्थ ही “हिंदू विरोध” हो गया है।

2. मीडिया और बौद्धिक पक्षपात

भारत के कई मीडिया और अकादमिक वर्गों में लंबे समय तक एक वैचारिक झुकाव रहा है।
हिंदू संस्कृति से जुड़ी परंपराओं, त्यौहारों और धर्माचारों को “अंधविश्वास” या “पिछड़ापन” कहकर प्रस्तुत किया गया, जबकि अन्य धर्मों की परंपराओं को “संवेदनशीलता” और “संस्कृति” का प्रतीक बताया गया।
यह दोहरा दृष्टिकोण लोगों के मन में गहरा असंतोष पैदा करता है।
3. न्यायिक और सरकारी असमानताएँ

हिंदू धार्मिक संस्थाएँ (जैसे मंदिर) राज्य के नियंत्रण में हैं, जबकि अन्य धर्मों के धार्मिक संस्थान स्वतंत्र हैं।

कुछ कानून, जैसे “मुस्लिम पर्सनल लॉ,” विशेष समुदायों के लिए अलग व्यवस्था रखते हैं।

वहीं समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की बात उठाते ही “सेक्युलरिज़्म खतरे में” कह दिया जाता है।
इस असमानता ने “सेक्युलरिज़्म” को निष्पक्षता की जगह पक्षपात का प्रतीक बना दिया।
हिंदू समाज की सहिष्णुता — एक अनदेखी सच्चाई

  • हिंदू धर्म विश्व का सबसे सहिष्णु और समावेशी धर्म है।
  • इसने कभी किसी पर अपना मत थोपने की कोशिश नहीं की।
  • “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति” — यह वैदिक वाक्य बताता है कि सत्य एक है, बस उसकी अभिव्यक्ति अनेक रूपों में होती है।
  • ऐसी उदार भावना वाले समाज के प्रति यदि “सेक्युलरिज़्म” के नाम पर अपमान और अविश्वास दिखाया जाए, तो स्वाभाविक रूप से प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी।

सेक्युलरिज़्म बनाम तुष्टिकरण

सेक्युलरिज़्म का सही रूप है —

“सभी के प्रति समान आदर।”
लेकिन आज व्यवहार में यह बन गया है —
“हिंदू परंपराओं को दबाओ, और दूसरों को खुश करो।”
यही कारण है कि लोग अब “छद्म-सेक्युलरिज़्म” (Pseudo-secularism) शब्द का प्रयोग करने लगे हैं।
समाधान — वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की ओर

भारत को छद्म-सेक्युलरिज़्म नहीं, बल्कि समान और न्यायपूर्ण धर्मनिरपेक्षता चाहिए।
इसके लिए ज़रूरी है—

  • सभी धर्मों के लिए समान कानून: समान नागरिक संहिता लागू हो।
  • धर्म के नाम पर राजनीति बंद हो।
  • मीडिया और शिक्षा में संतुलन: हर धर्म और परंपरा का सम्मान हो।
  • राज्य की समान दूरी नीति: किसी एक धर्म से न नज़दीकी, न दूरी।
  • संविधान की आत्मा की पुनर्व्याख्या: “सेक्युलरिज़्म” का अर्थ ‘Hindu-agnosticism’ नहीं, ‘equal respect for all’ बने।

भारतीय “सेक्युलरिज़्म” का मूल भाव कभी हिंदू विरोध नहीं था।
परंतु दशकों से चली आ रही विकृत व्याख्या और वोट बैंक की राजनीति ने इसकी आत्मा को घायल कर दिया है।
सच्चा सेक्युलर राष्ट्र वही होगा जहाँ किसी धर्म को दबाया न जाए, किसी को चढ़ाया न जाए, बल्कि सबको समान आदर और स्वतंत्रता मिले।

भारत की आत्मा सनातन है — और जब तक यह सत्य जीवित है, तब तक धर्मनिरपेक्षता का सही स्वरूप पुनः स्थापित किया जा सकता है।

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