ताक
जय प्रकाश कुवंर
आज मैं फुर्सत के क्षण में बैठे बैठे मोबाईल देख रहा था। फेसबुक पर किसी के द्वारा नीचे दिया हुआ फोटो लगा कर उसका नाम पुछा गया था। फोटो ने बरबस मेरा ध्यान आकृष्ट किया और मैं अपने बचपन के दिनों में चला गया।
मेरा बचपन गाँव में बिता है और उन दिनों १९६०-७० के दशक तक गाँव देहात में रईश , मध्यमवर्गीय तथा गरीब परिवारों का घर या तो पूर्ण मिट्टी से बना हुआ होता था अथवा नीचे ईंट और कुछ दूर उपर मिट्टी से बना हुआ खपरैल छाजन का हुआ करता था। उसी में कुछ अमीर और धनवान परिवार दीवार को थोड़ा उंचा उठाकर एवं बीच में लकड़ी का पटड़ा डालकर दो मंजिला भी बना लेते थे। उन दिनों गाँव देहात में स्टील आलमारी आदि का चलन नहीं था। लोहे का छोटा बड़ा बांक्स या पेटी हर घर में रहता था, जिसमें लोग कपड़ा और आभूषण आदि रखते थे। उन दिनों गरीब अमीर सबके घरों में दिवाल में छोटा मोटा जरूरत का सामान रखने के लिए ताक बनाया जाता था। घर में जितने भी कमरे होते थे उनमें एक या दो ताक जरूर बनाया जाता था। ताक छोटा मोटा सामान रखने के अलावा घर में प्रकाश के लिए मिट्टी का ढिबरी या दीपक रखने के काम भी आता था ।

इस प्रकार मिट्टी के घरों में बने हुए ताक को कुछ लोग ताक, ताख, ताखा, दियारखा तथा आला आदि नामों से भी संबोधित करते थे। जो भी हो घरों में बना हुआ यह ताक उन दिनों होता था बड़े काम का।
आज बदलते समय के क्रम में वो सारी चीजें लुप्त हो गयीं और अब ईंट पत्थर तथा स्टील के सरिया आदि से बने पक्के घरों में दिवारों में आलमारी, वारड्रोब, गुप्त तहखानों आदि का प्रचलन हो गया है।
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