"भीतर की शरण"
पंकज शर्माप्रीत की पीर को मैं
किसी बाहरी घटना की तरह नहीं—
अपने ही भीतर उगते स्वरों की
एक अनिवार्य प्रतिध्वनि की तरह देखता हूँ।
दुख को सँभालना
दरअसल स्वयं को पहचानने का
सबसे मौन अभ्यास है।
कभी-कभी लगता है,
भाग्य किसी डाल पर नहीं—
मनुष्य के भीतर जन्म लेता है।
जहाँ करुणा टिक सके,
वहीं पंखों को ठहराव मिलता है;
और ठहराव ही
उड़ान की पहली शर्त है।
आसमान की ओर उठी नज़र
हमेशा बाहरी विस्तार नहीं देखती।
कभी वह भीतर की खिड़कियों पर
समय का धूल-सा जमाव जान लेती है,
और मैं समझ पाता हूँ
कि संसार का दर्शन
अक्सर आत्म-भग्नता का ही रूपांतरण है।
सुबह जब आती है
तो वह किसी उत्सव की तरह नहीं—
एक परीक्षण की तरह आती है,
परखती है कि रात्रि में संचित
अंधकार का कितना अंश
मैं आज छोड़ सकूँगा।
और शाम—
शाम हमेशा किसी लौटती रोशनी का
संयमित स्वीकार है।
रिश्तों में दर्द
कभी बाहरी नहीं होता।
हमख़्याल लोगों के साथ
हम अपने एकांतों को बाँटते नहीं,
केवल उन्हें
थोड़ा अधिक समझना सीख लेते हैं।
और यही समझ
दुख की तीक्ष्णता को
धीरे-धीरे निष्प्रभ कर देती है।
जिसकी थाली में
अन्न की गरमाहट होती है,
वही बाँटने का अर्थ जानता है—
कि मनुष्य के भीतर
कितना स्थगित करूणा-बिंदु
कभी साधारण रोटी की तरह
भर सकता है।
भय में पढ़े गए शब्द
हमेशा वक्र हो जाते हैं,
अपने ही अर्थों के विरोध में खड़े होकर।
पर एक साहसी दृष्टि
उन्हीं शब्दों को
उनके मूल ताप तक लौटा देती है—
जहाँ भाषा फिर से
मनुष्य के पक्ष में खड़ी होती है।
जीवन का वृत्त
पीर, प्रकाश, प्रश्न और प्रयाण
इन चार बिंदुओं से बनता है।
मैं इस वृत्त पर चलता हुआ
हर दिन कुछ खोता हूँ,
कुछ पाता हूँ—
और कभी-कभी
इन दोनों के बीच
एक तीसरी चीज़ मिलती है:
शरण—
जो बाहर नहीं,
केवल भीतर संभव है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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