महिमा कार्तिक पूर्णिमा की
मार्कण्डेय शारदेय
भविष्य पुराण में आया है कि श्रीराम सीता-लक्ष्मण के साथ वनवास चले गए थे। भरतजी ननिहाल से अयोध्या आए।उन्हें पिता की मृत्यु और राम-वनगमन की जानकारी मिली तो माता कैकेयी को खूब दुत्कारा।इसके बाद कौसल्या के पास आए।उन्हें लगा कि कौसल्या माँ के मन में होगा कि यह करतूत भरत की ही है।इसलिए वह लगे कसम खाने कि मेरा इस कुकृत्य में कोई योग नहीं।उसी में उन्होंने कहा-
‘वैशाखी कार्तिकी माघी तिथयोsमरपूजिताः।
अप्रदानवतो यान्ति यस्यार्योनुमते गतः’।।
अर्थात्, यदि श्रीराम के वनवास में मेरी सम्मति रही हो तो वैशाख, कार्तिक एवं माघ- इन अधिक पुण्यमयी तथा देवताओं द्वारा भी वन्दनीय तीनों पूर्णिमाओं में बिना स्नान-दान के ही मुझसे व्यतीत हो जाएँ।यह सुन कौसल्या ने विश्वास कर उन्हें गले से लगा लिया।
स्पष्ट है कि अन्य पूर्णिमाओं की अपेक्षा इन तीनों की महत्ता अधिक है।
हमारे बारह महीनों का क्रम समय-समय पर बदलता रहा है।कभी आग्रहायण (अगहन, मार्गशीर्ष) से प्रारम्भ होकर कार्तिक तक चलता था।प्रायः व्रतादि में आज भी यही मान्य है।अन्तिम मास होने से इसमें धार्मिक कार्य पूर्णता पाते हैं।अतः इसका माहात्म्य अधिक हो जाता है।अन्त भला तो जग भला।
यों तो हमारे सभी महीने ही विष्णु को समर्पित हैं व विष्णुमय हैं, परन्तु हमारे धर्मशास्त्र कार्तिक, माघ एवं वैशाख मास में आनुष्ठानिक रूप से प्रातःस्नान एवं श्रीहरि के पूजन का महत्त्व बताते थकते नहीं- ‘तुला- मकर- मेषेषु प्रातःस्नानं विधीयते’।इन तीनों में भी तुलना करना मुश्किल है।फिर भी, कार्तिक के सन्दर्भ में कहा गया है- द्वादशेष्वपि मासेषु कार्तिकः कृष्ण-वल्लभः।यानी, बारहों महीनों में कार्तिक श्रीकृष्ण को अत्यधिक प्रिय है।इसीलिए स्कन्द पुराण में कहा गया है-
‘न कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्।
न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगया समम्’।।
अर्थात्, कार्तिक के समान कोई महीना नहीं, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं, वेदों के समान कोई शास्त्र नहीं तथा गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है।
इसका कारण है कि अत्यन्त सूक्ष्म छह ताराओं का सघन पुंज कृत्तिका नक्षत्र के आधार पर ही इस महीने का नाम पड़ा है।2357 ई.पू. चीनी ग्रन्थों में भी इस नक्षत्रपुंज का नाम आया है।‘ग्रह-नक्षत्र’ के लेखक श्री त्रिवेणी प्रसाद सिंह जी कहते हैं, ‘…ईसवी सन् के कोई दो हजार वर्ष पूर्व वसन्त-सम्पात कृत्तिका नक्षत्र पर ही होता था।तभी कृत्तिकाओं के पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वर्गीय सेना के सेनापति माने गए; क्योंकि नक्षत्रों की गणना यहीं से आरम्भ होती थी।जिस महीने चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र के समीप रहा, वह महीना कार्तिक महीना कहलाया।....कृत्तिकाओं के वैदिक नाम अम्बा, दुला, नितत्नी, भ्रयन्ती, मेघयन्ती, वर्षयन्ती, चुपुणीका....।पौराणिक काल में इन्हें क्रमशः सम्भूति, अनसूया, क्षमा, प्रीति, सन्नति, अरुन्धती तथा लज्जा कहा गया।बिना किसी यन्त्र के कोई तो 6 ताराओं को ही देख सकता है और कोई सात को’।
हमारे महीनों के नाम विज्ञान-सम्मत नक्षत्रों पर आधारित हैं।कार्तिक का नाम कृत्तिका नक्षत्र से सम्बन्धित है।प्रायः पूर्णिमा को यह नक्षत्र आ ही जाता है।कभी-कभी भरणी व रोहिणी का योग भी प्राप्त होता है।भरणी के यम, कृत्तिका के अग्नि एवं रोहिणी के ब्रह्मा स्वामी बताए गए हैं।यों तो इन तीनों नक्षत्रों में से किसी की व्याप्ति के कारण इस पूर्णिमा का महत्त्व नहीं घटता, परन्तु स्नान-दान में कृत्तिका के रहने से महापुण्य तथा रोहिणी के होने से महाकार्तिकी कहा गया है।
महाकार्तिकी के सन्दर्भ में भविष्य पुराण सत्ययुगी राजा दिलीप की पत्नी कलिंगभद्रा की कथा प्रस्तुत करते कहता है कि महारानी ने छह वर्षों तक लगातार कृत्तिकाव्रत करने का संकल्प लिया।तदनुसार उपवास, देवपूजन, हवन, दान करती आ रही थीं।परन्तु, कालवश उद्यापन के पहले ही साँप ने डँस लिया और वह मर गईं।उनका अगला जन्म बकरी के रूप में हुआ।लेकिन, पुण्य-प्रभाव से पूर्वजन्म की बातें याद रहीं।महर्षि अत्रि के योगोपदेश से अगले जन्म में गौतमपुत्री योगलक्ष्मी हुई और उनका विवाह महर्षि शाण्डिल्य से हुआ।
कार्तिक पूर्णिमा को तीर्थस्नान के रूप में कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, नैमिष, मूलस्थान (मुलतान), गोकर्ण (मैसूर) द्वारका एवं मथुरा की विशेष महिमा है।फिर भी, इसमें कुरुक्षेत्र, द्वारका, पुष्कर एवं मथुरा का फल अधिक है।पुनः अयोध्या आदि अन्य मोक्षदायक पुरियों की भी महिमा भी खूब बताई गई है।इसीलिए कहा गया है-
कुरुक्षेत्रे कोटिगुणो गंगायां चापि तत्समः।
ततोsधिकः पुष्करे स्याद् द्वारकायां च भार्गव।
अन्यपूर्याः तत्समानाःमुनयो मथुरां विना।।
यहाँ ‘गंगायां चापि तत्समः’ जो कहा गया, तदनुसार जहाँ कहीं भी गंगा बहती हैं, वहाँ स्वतः तीर्थ है।यही कारण है कि लोक में इसका एक नाम गंगास्नान भी है।हम अपने बिहार की बात करें तो यहाँ के प्रत्येक गंगाघाट पर कार्तिक पूर्णिमा को श्रद्धालुओं की महती भीड़ उमड़ पड़ती है।यों भी ‘कलौ गंगा विशिष्यते’ यानी कलियुग में गंगाजी की महिमा अत्यधिक है।परन्तु, जहाँ गंगा नहीं, वहाँ नामोच्चारण व स्मरण मात्र से भी जगत्पावनी भागीरथी की उपस्थिति सहज मान्य है।इसीलिए हम जहाँ कहीं रहें, देवनदी से दूरी मानते ही नहीं।
भविष्य पुराण वैशाख, कार्तिक एवं माघ की पूर्णिमाएँ स्नान-दान के लिए अधिक मूल्यवती हैं। वैशाखी में उज्जयिनी की शिप्रा में तो कार्तिकी में पुष्कर में तथा माघी में वाराणसी का उच्च स्थान है।इनमें ब्राह्मणों को दान के अतिरिक्त अपने सगे-सम्बन्धियों- बहन, भानजे, बुआ आदि के अलावे मित्रों, विपत्तिग्रस्त कुलीनों के साथ ही अन्य गरीबों को भी दान देना श्रेयस्कर माना गया है।स्कन्द पुराण में कार्तिक के शुक्लपक्ष की अन्तिम तीन तिथियों त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा के माहात्म्य में श्रीमद्भगवद्गीता एवं विष्णुसहस्रनाम के पाठ को विशेष पुण्यदायक कहा गया है। इस पूर्णिमा को प्रातःकालीन नित्य कृत्यों से निवृत्त होने के बाद केले के थम्बों से विष्णुमण्डप बनाकर सुसज्जित कर बन्दनवार आदि लगाकर विष्णुपूजा का विधान है।
‘कृत्यसार-समुच्चय’ के अनुसार कार्तिक में कोशी नदी में स्नान भी पुण्यप्रद माना गया है।हाँ, एशिया के प्रसिद्ध पशुमेला का केन्द्र गंगा-गंडक के संगम स्थल हरिहरक्षेत्र, सोनपुर में भी कार्तिक पूर्णिमा को स्नान एवं बाबा हरिहरनाथ के दर्शन का धार्मिक महत्त्व अत्यधिक है।दूर-दूर के लोग यहाँ आते हैं और गजेन्द्रमोक्ष से जुड़े इस पवित्र तीर्थ में स्नान-पूजन कर पुण्यप्राप्त करते हैं।
वस्तुतः इस दिन के मुख्य कृत्य प्रातःस्नान, देवपूजन एवं दान ही हैं। इस दिन देवताओं में विशेष दर्शनीय एवं पूजनीय श्रीहरि, भगवान शंकर एवं कार्तिकेय हैं।
इस दिन का एक नाम देव-दीपावली भी है।इसी दिन भगवान शंकर ने त्रिपुर-संहार किया था।इसी विजय के उपलक्ष्य में देवमन्दिरों, विशेषकर शिवमन्दिरों में दीप-प्रज्वलन का माहात्म्य है।विष्णु-धर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि इस दिन त्रिपुरोत्सव मनाने से तथा सात सौ बीस बत्तियों के दीपों के दान से शिवजी की प्रीति बढ़ती है। यह भी मान्यता है कि इस दिन प्रज्वलित दीपों के दर्शन से कीट-पतंग, तरु-गुल्म आदि भी परम गति पाते हैं।
(लेखक श्री मार्कण्डेय शारदेय की पुस्तक सांस्कृतिक तत्त्वबोध से)
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