"मनुष्य : विलोपन का प्रतीक"
पंकज शर्मामैं आकार नहीं, आकांक्षा का अवशेष हूँ—
वह बिंब, जिसे समय ने उकेरा नहीं,
बल्कि क्षय की ज्वाला में ढाल दिया।
मेरा अस्तित्व किसी शिल्प का नहीं,
किसी असफल ईश्वर का अधूरा स्वप्न है।
मेरी त्वचा से टपकते हैं नगर,
हर इमारत एक स्मृति है—
जो किसी आत्मा के भीतर पड़ी थी,
अब मलबे में अपना अर्थ खोजती है।
मैं अपने ही निर्माण का विध्वंसक हूँ—
जिसने ईंटों से इच्छाएँ जोड़ीं
और अंततः उन्हीं में गाड़ दी
अपनी अंतिम श्वास।
यह देह—संरचना नहीं, प्रतीक है
अहं के अंतिम क्षण का;
जहाँ पदार्थ पिघलकर पूछता है—
क्या चेतना स्वयं को भस्म कर
अनंत बन सकती है?
मेरा मस्तक पीछे झुका है,
जैसे मैं शून्य का गर्भ देख रहा हूँ—
जहाँ विचारों के अवशेष
अभी भी धूल में सुलगते हैं।
यह मौन—किसी प्रलय का संगीत है,
जो भीतर से रिसता हुआ
देह की सीमाओं को भंग कर देता है;
जैसे अस्तित्व अपने ही तट को
बहा ले जाता हो।
मैं गिर नहीं रहा—
मैं लौट रहा हूँ उस प्रारंभ में,
जहाँ 'होना' और 'न होना'
एक ही श्वास के दो छोर थे।
अब जब मैं विलीन हो रहा हूँ,
तो कोई रिक्तता नहीं, कोई अंत नहीं—
सिर्फ एक सूक्ष्म कंपन है
जो कहता है—
मनुष्य सदैव अपने ही मलबे में
अनंत की खोज करता रहेगा।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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