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हिंदी बाल साहित्य के ऐतिहासिक विकास

हिंदी बाल साहित्य के ऐतिहासिक विकास

सत्येन्द्र कुमार पाठक
हिंदी बाल साहित्य का इतिहास केवल कहानियों या कविताओं का संग्रह नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज, संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था के विकास का दर्पण है। प्राचीन मौखिक परंपराओं से लेकर आधुनिक डिजिटल युग तक, बाल साहित्य ने बच्चों के मन, मस्तिष्क और नैतिकता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्राचीन काल (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग): बीजारोपण और नैतिक शिक्षा - बाल साहित्य की जड़ें भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम परंपराओं में निहित हैं। यद्यपि इन युगों में 'बाल साहित्य' एक पृथक विधा के रूप में मौजूद नहीं था, लेकिन बच्चों को संस्कारित करने वाली सामग्री मौखिक या धार्मिक उपदेशों के रूप में सदैव उपस्थित रही।
सतयुग और त्रेतायुग: इस काल में धर्म और नैतिकता का सहज संचार था। रामायण जैसी कथाएँ, जो त्रेतायुग से जुड़ी हैं, बच्चों को पितृभक्ति, कर्तव्यपरायणता और त्याग जैसे शाश्वत मूल्यों की शिक्षा देती थीं। लोरी, गीत और धार्मिक भजन ज्ञान और मनोरंजन का माध्यम थे। द्वापर युग: यह युग कर्म और धर्म-अधर्म के संघर्ष की शिक्षा देता है। महाभारत और श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण की बाल लीलाएँ बच्चों को चंचलता के साथ-साथ न्याय और मित्रता का महत्व समझाती थीं। इन कथाओं ने बच्चों के मन को बांधे रखा और उन्हें जीवन की जटिलताओं से परिचित कराया।
पंचतंत्र: प्राचीन काल में रचित विष्णु शर्मा/नारायण पंडित कृत 'पंचतंत्र' भारतीय बाल साहित्य का आधार स्तंभ है। पशु-पक्षियों के माध्यम से राजनीति, कूटनीति और व्यावहारिक जीवन की शिक्षा देना इसकी विशेषता है। इसका अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ, जो इसके सार्वभौमिक महत्व को दर्शाता है। प्राचीन काल में बाल साहित्य का मुख्य उद्देश्य नैतिक मूल्यों का रोपण और धर्म की शिक्षा देना था।
आधुनिक काल (कलियुग): विधिवत उदय और विकास - हिंदी बाल साहित्य को एक स्वतंत्र और सुव्यवस्थित विधा के रूप में पहचान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (भारतेन्दु युग) से मिलनी शुरू हुई। इस विकास को तीन प्रमुख चरणों में बाँटा जा सकता है:
भारतेन्दु युग - 19वीं शताब्दी में भारत में जन-जागरण और शिक्षा के प्रसार की नींव पड़ रही थी। बच्चों को हिंदी भाषा सिखाने और उनमें देशभक्ति तथा नैतिक आदर्शों को जगाने की आवश्यकता महसूस हुई। बाल साहित्य का उदय अधिकतर स्कूली पुस्तकों के रूप में हुआ, जो बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं।भारतेन्दु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रणेता माना जाता है। उनके समय में ही 'बाल दर्पण' जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से बाल पत्रकारिता का उल्लेख मिलता है, जिसने बच्चों के लिए विशेष सामग्री की आवश्यकता को रेखांकित किया।
स्वर्ण युग (द्विवेदी युग - 1900 से 1950 ई. तक) हिंदी बाल साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण और स्वर्णिम युग कहलाता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से कई लेखकों ने बच्चों के मनोविज्ञान को समझा और मौलिक रचनाएँ कीं।
इस युग में सोहनलाल द्विवेदी, रामधारी सिंह 'दिनकर', द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जैसे कवियों ने सरल, मनोरंजक और आदर्शवादी रचनाएँ लिखीं। इनकी कविताएँ आज भी बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। : 'बालसखा' (1917) और 'शिशु' जैसी पत्रिकाओं ने बाल साहित्य को घर-घर पहुँचाने और बच्चों के बीच पढ़ने की आदत विकसित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई। यह वह दौर था जब कहानी, कविता, उपन्यास और नाटक जैसी सभी विधाओं में मौलिक कार्य हुआ। स्वातंत्र्योत्तर काल (1950 ई. से वर्तमान तक) - स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बाल साहित्य ने नई दिशाएँ ग्रहण कीं और यह राज्य व निजी संस्थाओं के सहयोग से एक संगठित विधा बनी। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता थी। चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट (CBT) की स्थापना (1957) के. शंकर पिल्लै द्वारा हुई। इसका उद्देश्य उच्च गुणवत्ता और कम कीमत पर बाल पुस्तकें उपलब्ध कराना था। इसी प्रकार, नेशनल बुक ट्रस्ट (NBT) ने भी बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक सामग्री छापी जयप्रकाश भारती ने 'नंदन' जैसी लोकप्रिय पत्रिका का संपादन किया और उन्हें हिंदी बाल साहित्य का युग प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने बच्चों के लिए विज्ञान, रोमांच और सामाजिक विषयों पर लिखा। बाल साहित्य अब केवल आदर्शवाद तक सीमित नहीं रहा। इसमें विज्ञान कथाएँ, पर्यावरण चेतना, समकालीन सामाजिक मुद्दे और हास्य को भी शामिल किया गया।
बाल साहित्य का ऐतिहासिक विकास इस बात का प्रमाण है कि यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कृति के हस्तांतरण का सबसे शक्तिशाली माध्यम रहा है। आज बाल साहित्य एक डिजिटल क्रांति के दौर से गुजर रहा है। ई-बुक्स, ऑडियोबुक्स, और शिक्षाप्रद वीडियो सामग्री ने बच्चों तक पहुँचने के तरीके को बदल दिया है। बच्चों की रुचि अब केवल कथाओं तक सीमित न होकर इंटरनेट, प्रौद्योगिकी और वैश्विक ज्ञान की ओर भी बढ़ी है।: हालाँकि, आधुनिकता की दौड़ में, जहाँ एक ओर गुणवत्तापूर्ण पुस्तकें उपलब्ध हैं, वहीं दूसरी ओर व्यावसायिकता के कारण सतही सामग्री की अधिकता भी बढ़ी है। बाल साहित्य को अपनी विश्वसनीयता और उपयोगिता बनाए रखने के लिए बच्चों को मोबाइल और सोशल मीडिया के अत्यधिक प्रभाव से दूर खींचना और उन्हें पठन संस्कृति से जोड़े रखना सबसे बड़ी चुनौती है।
हिंदी बाल साहित्य का इतिहास गौरवशाली रहा है, जिसने प्राचीन नैतिकता को आधुनिक ज्ञान से जोड़ा है। इसका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि लेखक, प्रकाशक और अभिभावक मिलकर बच्चों की कल्पना, जिज्ञासा और सीखने की प्रवृत्ति को किस प्रकार संतुलित करते हैं।


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