"चिंतन -मनन"
रजनीकांत पाठक ।
धूप छांव में बीत गए हैं
जीवन के वे पैंसठ वर्ष,
क्या खोया क्या पाया है
चलता रहता मन में विमर्श।
बचपन था मनभावन अपना
प्रतिदिन होता था उत्कर्ष,
ग़म तो लेश मात्र भी न था
बस होता रहता था हर्ष।
शुरू हो गई राम कहानी
आई जब से नयी जवानी,
लाभ सोच कर कर्म था करता
पर होती हानि ही हानि।
थी सर पर बस पिता छाया
पर जो चाहा नहीं था पाया,
कठिन परिश्रम करने पर भी
घेर रखी थी छलिया माया।
नियति प्रबल है मान चुका था
कौन पराया जान चुका था,
ज्ञान दान करने को निशि दिन
मन में अपने ठान चुका था।
अभी बुढ़ापा डरा रहा है
हर पग पर अब हरा रहा है,
मातृ-शरण बस एकमात्र है
भक्ति उनकी करा रहा है।
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