पावन कथा श्री राम की |
धनंजय जयपुरी
सुनिए सभी जन ध्यान से पावन कथा श्रीराम की।
लंका विजय करके अभी लौटे परम सुखधाम की।।
कार्तिक अमावस का दिवस कोशलपुरी हित खास है।
लौटे अवधपुर रामजी पूरा हुआ वनवास है।।
हर ओर गुंजे राम धुन हर ओर मंगल गान है।
खुश हैं सभी जन जानकर लौटी अवध की शान है।।
हर हाथ पुष्पों की लड़ी सबका सुशोभित भाल है।
देखो अयोध्या हो गई फिर आज मालामाल है।।
प्रमुदित सभी नर-नारियां पथ में खड़ीं आंखें बिछा।
गातीं मनोहर गीत सब मन मोहता है स्वर अहा!!
वर्णन करूं कैसै कहो अतिशय सुहावन दृश्य का।
वाणी नहीं है नेत्र को हैं जीभ को आंखें कहां।।
नभ में खड़े हो देवता देखो सुमन बरसा रहे।
शुचि वेद की पावन ऋचा गाकर हृदय हरसा रहे।।
थी सांध्य की सुंदर सुखद वेला सभी को मोहती।
औ सूर्य की रक्तिम किरण तरु के शिखर पर सोहती।।
पंछी चहकते जो यहां करते अचंभित लोग को।
गौ के गले की घंटियां बजतीं बढ़ातीं मोद को।।
सुंदर सुवासित फूल से वीथी पटी हर ओर की।
है बह रही शीतल हवा लगती सुहानी भोर की।।
आवाज़ गुंजित हो रही श्रीराम जय-जय राम की।
अतिशय सुशोभित हो रहे श्रीराम-लक्ष्मण-जानकी।।
जयकार करते शोभते हनुमान बंदर ऋक्ष हैं।
देखो नमित होकर खड़े पथ की लताएं वृक्ष हैं।।
देखी उचककर राम को इक पुष्प से पूरित लता।
खुश हो कही वह झूम कर अब मिट गई मन की व्यथा।।
गुंजार करता भृंग दल दिखता यहां चहुं ओर है।
श्रीराम जय जय राम सीता राम का बस शोर है।।
नर नारियों को देखिए कर में कलश लेकर खड़े।
सब पेड़ पौधे चर-अचर छवि देखने को हैं अड़े।।
कुछ नगर-जन के नैन आंसू से भरे छवि देखते।
कुछ ने कहा इस सांध्य वेला में उदित रवि देखते।।
बेचैन हैं सबके नयन प्रभु राम के दर्शन करें।
सबकी ललक है एक ही अपना सफल जीवन करें।।
कुछ लोग कर को जोड़कर पथ में बिछा आंखें दिए।
कुछ ने समर्पित आपको खुद राह में बिछकर किये।।
जिसको दिखे श्रीराम जी कृतकृत्य समझा आप को।
जिसने किये दर्शन नहीं करने लगा संताप वो।।
कुछ लोग आंखें बंद कर देखे छवि श्रीराम की।
कुछ लोग पद की वंदना करते दिखे सुखधाम की।।
मुख से निकलते लोग के श्रीराम जय जय राम हैं।
श्रीराम हैं जग के नियंता और चारों धाम हैं।।
श्रीराम अपरंपार इस संसार के सुखसार हैं।
सब मस्तकों के हैं मुकुट सबके हृदय के
हार हैं।।
श्रीराम दाता हैं बड़े गुण को सदा गाते रहो।
इहलोक से परलोक तक तुम सुख सदा पाते रहो।।
दिन-रात सायं-प्रात में श्रीराम के गुण गाइए।
सुख-चैन से रहिए सदा जीवन सफल कर जाइए।।
शत्रुघ्न औ श्री भरत जी दौड़े त्रयी दर्शन करें।
सम्राट पद भारी बहुत श्री चरण में अर्पण करें।।
भाई भरत श्रीराम के चरणाब्ज रज मस्तक रखे।
अरिहंत जब पग को चुमे ऐसा लगा अमरित चखे।।
भ्राता युगल को रामजी तब बांह में निज भर लिए।
नयनांबु से नहला-धुला तन के तपिश को हर लिये।।
मां कैकई के जा सदन ऐसा कहा श्रीराम ने।
आकर गले मुझको लगा है राम तेरे सामने।।
कर दो क्षमा माई भरत के आज दुर्व्यवहार को।
फिर सत्य करके तुम दिखा माता-सुवन के प्यार को।।
ना दोष तेरा था जरा समझो विधाता वाम था।
सुरलोक जाना तात का तो कर्म का परिणाम था।।
जीवन-मरण निंदा-सुयश विधि हाथ है यह जान लो।
निज कर्म पर अधिकार है सच बात मेरी मान लो।।
बीते दिनों को याद कर माता फफककर रो पड़ी।
सुत-मात के इस प्रेम को देखी वहां जनता खड़ी।।
बोली किया है नाश अपने मांग के सिंदूर का।
मैंने हनन खुद से किया निज वंश के दस्तूर का।।
मैंने परम प्रिय पुत्र को घर से निकाला कर दिया।
दुर्भाग्य को मैंने बुला खुद आपसे ही वर लिया।।
तब राम ने मां से कहा जो भी हुआ अच्छा हुआ।
जग के हितैषी के लिए अब तक भला सच्चा हुआ।।
कारण बनी होती न तू सत्कर्म के अभियान का।
फिर जन्म लेना व्यर्थ था जननी तुम्हारे राम का।।
तेरा लला वन को नहीं सोचो अगर जाता चला।
फिर राम तेरा राम क्या बनता कभी बोलो भला??
है क्षात्र जीवन धारता बस लोक के कल्याण हित।
मैं देखकर कैसे सहूं होते हुए जग का अहित।।
माता-पिता गुरु ने मुझे शिक्षा कभी ऐसी न दी।
अरि को दिखाकर पीठ रण से भाग जाना तू कभी।।
मैं सूर्यवंशी लाल हूं मैं काल का भी काल हूं।
मैं दुश्मनों के सामने साक्षात् यम विकराल हूं।।
मैं किस तरह सहता भला गो-विप्र के अपमान को।
कैसे मिलाता धूल में रघुवंश के सम्मान को।।
नारी यदि लुटती कहीं उसको बचाना धर्म है।
तूने बताया था यही सबसे बड़ा सत्कर्म है।।
जो ध्वंश करता यज्ञ है उस दैत्य को मैं छोड़ दूं?
कैसे तपस्वी संत साधू से कहो मुख मोड़ लूं??
भू की सुता थी जानकी मैं भूप पद को धारता।
कैसे प्रतिष्ठा को मिटा खंजर हृदय में मारता।।
इस हेतु जंगल का सफर भी हो गया अनिवार्य था।
अन्याय पथ पर पग बढ़ाना ना मुझे स्वीकार्य था।।
जग की सुरक्षा के लिए मैं तन धरा तू जानती।
सब कुछ विदित है फिर कहो क्यों दोष अपना मानती।।
मेरे पिता का जो मुकुट बाली रखा था पास में।
मैं व्यथित था इस बात से मैं जी रहा था त्रास में।।
निज पितृ के अपमान को कोई तनुज कैसे सहे?
वह भूल जाए किस तरह अपनी व्यथा किससे कहे??
फिर कौन बाली मारता इस बात को मुझसे कहो?
सुग्रीव पाता न्याय फिर किसकी अदालत में कहो??
यह सोचकर अच्छा लगा इस महल से वनवास ही।
थी सेज मखमल से भली बिस्तर-उसिसवा घास की।।
फिर कौन राक्षस वंश का उद्धार करता बोल ना?
फिर साधुओं की पीर हरता कौन मां मुख खोल ना??
फिर बेर खाता कौन शबरी के कहो चखकर रखे?
फिर देख पाता कौन उसमें प्रेम जो मुझको दिखे??
निर्मल भरत की योग्यता फिर कौन कैसे जानता?
वह राम से भी श्रेष्ठ है कैसे जगत् यह मानता??
इस हेतु चिंता छोड़कर तुम ईश का चिंतन करो।
मन को लगाओ ब्रह्म में प्रभु के चरण-वंदन करो।।
अब आंसुओं की धार से गीले हुए मां के बदन।
युग से तड़पते बूंद को अब खिल उठे उजड़े चमन।।
संतुष्ट होकर मां कही बेटा हमारा धन्य है।
श्रीराम सा त्रैलोक्य में देखा-सुना ना अन्य है।।
माता सुमित्रा पास में अब आ गए थे रामजी।
उनके युगल पद से लिपट सुख पा गए थे रामजी।।
थे संग लक्ष्मण-जानकी माता चरण वंदन किये।
उनके चरण की धूल को सिर पर धरे चंदन किए।।
अनुपम अलौकिक दृश्य जो सबके हृदय को मोहता।
माता-तनय सीता सहित छविपुंज अतिशय सोहता।।
मां ने कहा दूधो नहा पूतो फलो हे जानकी।
अहिवात रह जीवन सकल सेवा करो श्रीराम की।।
श्रीराम से बोली कि तू रक्षा सदा इसकी करो।
लक्ष्मण तुम्हारे प्राण सा सब कष्ट तू इसके हरो।।
आगे कहा अब आप सब जाएं बड़ी मां पास में।
आंखें बिछाए राह में वे हैं तुम्हारी आश में।।
अब ज्येष्ठ मां के द्वार पर श्रीराम आकर हैं खड़े।
मां के चरण पाकर वहां साष्टांग जाकर गिर पड़े।।
मां ने लगाया अंक से भू से उठाकर राम को।
आसन दिया सुंदर-सुभग श्रीराम पूरणकाम को।।
लक्ष्मण व माता जानकी चरणाब्ज के पूजन किये।
जीवन रहे खुशहाल यह आशीष माता ने दिए।।
हर एक गृह शोभित हुआ दीपक प्रभा जब जल उठी।
कार्तिक अमावस रात है जो पूर्णमासी सी लगी।।
सुंदर सुवासित वस्त्र से तन हैं सभी के सोहते।
हैं वाद्य बजते मधुर स्वर जो मन हमारे मोहते।।
बच्चे-बड़े उत्साह से इक-दूसरे को चूमते।
कुछ वृद्ध जन भी ना रुके अलमस्त होकर झूमते।।
ऐसा अयोध्या को सजा देखा न था पहले गया।
सब कुछ अलौकिक दिख रहा सब कुछ यहां दिखता नया।।
सरयू सलिल की उर्मियों से जा मिली जब रोशनी।
झिलमिल सितारों की तरह जाकर खिली तब रोशनी।।
जल से उछल कर मछलियां दिखला रहीं उत्साह को।
जीवन मिला हर जीव को बतला रहीं नरनाह को।।
बोलीं कि हे श्रीराम जी तुम बिन मृतक सम जी रहे।
तेरा दरश पाया लगा छककर सुधा हम पी रहे।।
तुम ही बता बिन प्राण के तन का कहां कुछ मोल है?
तुमने दिया सबको अभी संजीवनी का घोल है।।
तेरी कृपा की छांव में जीवन बिताना चाहते।
जब त्याग हम जीवन करें तेरा ठिकाना चाहते।।
हर ओर है बंटती मिठाई चैन से जन आम है।
इस बात से खुश हैं सभी श्रीराम लौटे धाम है।।
धनंजय जयपुरी
राष्ट्रीय प्रचार मंत्री 'शब्दाक्षर'31अक्टूबर 2024 'दीपावली'
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