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"धन और मानवीय गरिमा का संतुलन"

"धन और मानवीय गरिमा का संतुलन"

पंकज शर्मा
​जीवन पथ पर अर्थोपार्जन आवश्यक है, जो स्वावलंबन एवं प्रगति का माध्यम है। धनार्जन स्वयं में दोष नहीं है, परंतु जब वित्त की तीव्र आकांक्षा में मानव अपनी संवेदना एवं नैतिकता का परित्याग कर देता है, तो यह अक्षम्य त्रुटि बन जाती है। उस क्षण, भौतिक समृद्धि की दौड़ व्यक्ति को उसकी आत्मिक पहचान से विमुख कर देती है, एवं वह मानवीय मूल्यों का विस्मरण कर केवल एक संग्रहकर्ता बनकर रह जाता है। यह विडंबना है जहाँ धन का चरम उत्कर्ष, आत्मिक पतन का हेतु बनता है।
​हमें स्मरण रखना होगा कि वास्तविक ऐश्वर्य केवल संचित धनराशियों में नहीं, अपितु उदात्त चरित्र, नैतिक आचरण एवं समृद्ध मानवीय संबंधों में निहित है। जब हमारी दौलत हमारे सिद्धांतों एवं करुणा से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, तब हम एक ऐसी आध्यात्मिक दरिद्रता के शिकार होते हैं जो भौतिक अभाव से कहीं अधिक भयावह है। सच्ची संपन्नता वह है जहाँ धन केवल साधन हो, साध्य नहीं। अतः, हमें धन का सृजन करना चाहिए, किंतु इस विवेक के साथ कि मानवीय गरिमा एवं नैतिक अखंडता ही हमारा सर्वोपरि धन है, जिसकी रक्षा के लिए हमें निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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