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करवा चौथ: पतिव्रता धर्म, अखंड सौभाग्य और आस्था का विराट अनुष्ठान

करवा चौथ: पतिव्रता धर्म, अखंड सौभाग्य और आस्था का विराट अनुष्ठान

सत्येन्द्र कुमार पाठक
करवा चौथ, भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में सुहागिन महिलाओं के लिए एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण और पवित्र त्योहार है। यह केवल एक व्रत नहीं, बल्कि पति-पत्नी के मध्य स्थित प्रेम, त्याग और अटूट समर्पण की भावनात्मक डोर का वार्षिक उत्सव है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाने वाला यह पर्व, नारी शक्ति के सतीत्व और तपस्या का जीवंत उदाहरण है, जिसकी जड़ें सदियों पुराने धर्मग्रंथों और लोक कथाओं में गहरी हैं।
भारत के हृदय स्थल, विशेषकर जम्मू, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में यह पर्व अत्यधिक श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। भारतीय प्रवासी समुदाय भी इसे विश्व भर में उसी निष्ठा से मनाता है, जिससे इसकी सांस्कृतिक पहचान अक्षुण्ण बनी रहती है। इसे करक चौथ या अटल तड्डी जैसे क्षेत्रीय नामों से भी जाना जाता है। सनातन धर्म शास्त्रों में करवा चौथ का उल्लेख विशेष रूप से अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए किया गया है। यह व्रत चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है, जिसका अर्थ है कि चतुर्थी तिथि के दौरान चंद्रमा का उदय होना आवश्यक है।करवा चौथ का व्रत कठोर निर्जल (बिना जल) उपवास होता है। शाम के समय, पूजा का विधान अत्यंत विस्तृत और शास्त्रीय होता है: देवों की स्थापना: इस दिन मुख्य रूप से भालचन्द्र गणेश जी की पूजा की जाती है, जो विघ्नहर्ता माने जाते हैं। वेदी पर बालू अथवा सफेद मिट्टी से भगवान शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश और चंद्रमा के विग्रह स्थापित किए जाते हैं।
षोडशोपचार पूजा: देवों का विधि-विधान से पूजन किया जाता है, जिसके मंत्र पाठ में दिए गए हैं: पार्वती (शक्ति स्वरूप): ‘ॐ शिवायै नमः’ , शिव (कल्याणकारी): ‘ॐ नमः शिवाय’ , स्वामी कार्तिकेय (संरक्षक): ‘ॐ षण्मुखाय नमः’, गणेश (विघ्नहर्ता): ‘ॐ गणेशाय नमः’, चंद्रमा (आयु और शीतलता के दाता): ‘ॐ सोमाय नमः’ है।
करवा का विधान: सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे (कलश) का इस पूजा में विशेष स्थान है। इसमें जल भरकर पूजा की जाती है, और पूजा के उपरांत करवे का आपस में आदान-प्रदान (फेरी) किया जाता है, जो महिलाओं के बीच आपसी प्रेम और सद्भावना को बढ़ाता है। थाली फेरी और कथा श्रवण: सौभाग्यवती महिलाएँ समूह में मिलकर व्रत की पौराणिक कथा सुनती हैं। कथा के साथ ही, गीत गाते हुए थालियों की फेरी की रस्म निभाई जाती है, जो इस सामूहिक पूजन का एक अभिन्न अंग है।
करवा चौथ व्रत की सफलता चन्द्रमा के दर्शन पर निर्भर करती है। चंद्रमा को आयु, आरोग्य और शीतलता का प्रतीक माना जाता है। दर्शन के उपरांत, चंद्रमा को जल का अर्घ्य दिया जाता है।चंद्र पूजा के बाद, पति के हाथों जल पीकर व्रत खोला जाता है। तत्पश्चात, महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका अखंड सुहाग का आशीर्वाद लेती हैं।
करवा चौथ की कथाएँ स्त्री के अटल विश्वास, धैर्य और पतिव्रता धर्म की शक्ति को दर्शाती हैं। यह कथा नियमों का पालन न करने के गंभीर परिणाम और तपस्या की शक्ति पर केंद्रित है।एक साहूकार के सात पुत्रों की बहन करवा ने निर्जल व्रत रखा था। भूख-प्यास से व्याकुल करवा की हालत उसके सबसे छोटे भाई से देखी नहीं गई। उसने छलपूर्वक, पीपल के पेड़ पर दीपक जलाकर और उसे छलनी की ओट में रखकर, कृत्रिम चंद्रोदय का भ्रम उत्पन्न किया।करवा ने उस नकली चंद्रमा को अर्घ्य देकर भोजन ग्रहण किया। छल से व्रत टूटने का परिणाम अत्यंत भयावह हुआ: पहले ग्रास में छींक आई।दूसरे ग्रास में बाल निकला।तीसरे ग्रास से पूर्व उसे पति की मृत्यु का समाचार मिला।करवा ने पति के अंतिम संस्कार को रोक दिया और अपने सतीत्व के बल पर पति के शव की एक वर्ष तक देखभाल की। अगले करवा चौथ पर, उसने अपनी भाभियों से मिलकर, विशेष रूप से छोटी भाभी से, अपने पति को पुनर्जीवित करने की शक्ति माँगी। छोटी भाभी, जिसके पति के छल के कारण व्रत टूटा था, ने अपनी तपस्या के अमृत से करवा के पति को पुनर्जीवन दिया। इस कथा का सार यह है कि निष्ठा और विधिपूर्वक किया गया व्रत ही फलदायी होता है, और पतिव्रता धर्म में इतनी शक्ति होती है कि वह मृत्यु को भी पराजित कर सकती है
यह कथा जल्दबाजी और अधीरता के दुष्परिणामों को समझाती है।वीरवती, एक ब्राह्मण कन्या, ने करवा चौथ का व्रत रखा, परंतु भूख से व्याकुल होकर अपने भाइयों के छल को स्वीकार कर लिया। भाइयों ने आतिशबाजी के प्रकाश से नकली चंद्रोदय दिखाकर उसे भोजन करा दिया। व्रत भंग होते ही उसका पति अदृश्य (मृत) हो गया।रानी इंद्राणी ने वीरवती को उसके दुःख का कारण बताया—बिना चंद्र दर्शन किए व्रत तोड़ना। इंद्राणी के मार्गदर्शन पर, वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी का व्रत किया और अगले करवा चौथ पर अपनी तपस्या से पुनः सौभाग्यवती हो गई।
कथा से ज्ञात होता है कि व्रत में धैर्य और सही समय पर नियम का पालन आवश्यक है। द्वापरयुग महाभारत काल से जुड़ी यह कथा संकट के निवारण में व्रत की भूमिका दर्शाती है। जब पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या के लिए नीलगिरी पर्वत पर गए थे और द्रौपदी को उनकी कोई खबर नहीं मिल रही थी, तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को करवा चौथ का व्रत करने की सलाह दी। उन्होंने यह भी बताया कि यह व्रत उसी प्रकार सुहाग की रक्षा करता है, जैसे रानी इंद्राणी द्वारा बताए गए व्रत से ब्राह्मण कन्या के पति को जीवन मिला था। द्रौपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौटे। यह व्रत पति के शारीरिक सुरक्षा और संकटों से रक्षा का भी कारक है। यह कथा पतिव्रता स्त्री के असाधारण साहस और दैवीय बल का प्रदर्शन करती है। करवा नाम की स्त्री के पति को नदी में स्नान के दौरान एक मगरमच्छ ने पकड़ लिया। करवा ने कच्चे धागे से मगर को बांधकर उसे यमराज के दरबार तक पहुँचा दिया। जब यमराज ने मगर की आयु शेष होने का हवाला देकर उसे दंडित करने से मना किया, तो करवा ने अपने सतीत्व की शक्ति से यमराज को श्राप देने की धमकी दी। करवा के पतिव्रता धर्म से भयभीत होकर यमराज ने मगर को नरक में भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु प्रदान की।
इस कथा का केंद्रीय भाव है कि पतिव्रता स्त्री का तेज और बल स्वयं मृत्यु के देवता से भी अधिक प्रभावी होता है।
चौथ माता मंदिर: आस्था और इतिहास का संगम - करवा चौथ पर्व की ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्ता का एक प्रमुख केंद्र राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में स्थित चौथ माता मंदिर है। ऐतिहासिक निर्माण: इस मंदिर का निर्माण महाराजा भीमसिंह चौहान ने 1451 ईस्वी में करवाया था।: यह मंदिर राजस्थान की राजधानी जयपुर से 35 कि.मी. की दूरी पर बरबाडा पर्वत श्रृंखला पर स्थित है। लगभग 1000 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित होने के कारण, यहाँ पहुँचने के लिए भक्तों को लगभग 700 सीढ़ियों की चढ़ाई करनी पड़ती है, जो स्वयं एक प्रकार की तपस्या है। देव विग्रह: मंदिर में मुख्य रूप से माता करवा, गणेश, भगवान शिव और भैरव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। यह मंदिर न केवल एक पवित्र स्थल है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि चौथ माता (करवा माता) की पूजा का प्रचलन कई शताब्दियों से राजस्थान की संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा है । करवा चौथ भारतीय समाज और पारिवारिक संरचना में एक गहरा सांस्कृतिक मूल्य रखता है। यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते को एक नए सिरे से भावनात्मक गहराई प्रदान करता है। पत्नी का निर्जल उपवास पति के प्रति उसके निस्वार्थ प्रेम और समर्पण को दर्शाता है, जबकि पति का अपनी पत्नी के लिए यह व्रत तोड़वाना प्रेम की अभिव्यक्ति है। पारिवारिक सौहार्द पूजा के दौरान थाली की फेरी और करवे का आदान-प्रदान न केवल महिला समूह के बीच, बल्कि पूरे परिवार में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाता है। सास-ससुर को प्रणाम करना और उनसे आशीर्वाद लेना पारिवारिक सम्मान और परंपरा को बनाए रखने का प्रतीक है। करवा चौथ का व्रत भारतीय नारी को धैर्य, निष्ठा और आत्म-नियंत्रण जैसे गुणों का महत्व सिखाता है। यह पर्व भारतीय स्त्री की वह छवि प्रस्तुत करता है, जो अपने परिवार और पति के लिए किसी भी कठिनाई का सामना करने को तत्पर रहती है।
करवा चौथ एक ऐसा विराट अनुष्ठान है, जो सदियों से चली आ रही भारतीय परंपराओं, पौराणिक गाथाओं और अटल आस्था का समन्वय है। यह पर्व हर वर्ष न केवल सुहागिन महिलाओं के जीवन में उल्लास, प्रेम और सौभाग्य लेकर आता है, बल्कि सनातन धर्म में निहित तपस्या, निष्ठा और पतिव्रता धर्म के उच्चतम मूल्यों को भी पुनर्स्थापित करता है। यह त्योहार भारतीय संस्कृति की वह अमूल्य धरोहर है, जो पति-पत्नी के रिश्ते को केवल एक सामाजिक समझौता नहीं, बल्कि एक पवित्र आध्यात्मिक बंधन मानती है। यह व्रत एक सशक्त संदेश देता है कि सच्चे प्रेम, नियम और निष्ठा से की गई प्रार्थना में इतनी शक्ति होती है कि वह जीवन पर आने वाले हर संकट को टाल सकती है, और अपने प्रियजन को चिर सुहाग का वरदान दिला सकती है।
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