जीवित व्यक्ति ही विरोध करता है, मुर्दे तो अनुसरण करते हैं
डॉ राकेश दत्त मिश्र
मुझे लगता है, मनुष्य का जीवन केवल सांस लेना, खाना, पीना और मर जाना नहीं है। यह चेतना, विचार, संघर्ष और आत्म-सम्मान का प्रतीक है। जिसने अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना बंद कर दिया, जिसने सच्चाई के सामने चुप रहना सीख लिया, जिसने झूठ के साथ समझौता कर लिया — वह चाहे शरीर से जीवित हो, पर आत्मा से मर चुका है। सच कहा गया है — “जीवित व्यक्ति ही विरोध करता है, मुर्दे तो अनुसरण करते हैं।”
विरोध का अर्थ केवल किसी के खिलाफ खड़ा होना नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस है। यह वह ज्योति है जो अंधकार में मार्ग दिखाती है। जब समाज अन्याय, भ्रष्टाचार या शोषण के आगे झुक जाता है, तब कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो खड़े होकर कहते हैं — “यह गलत है।”
इन्हीं लोगों के कारण सभ्यता आगे बढ़ती है, व्यवस्था सुधरती है, और मानवता जीवित रहती है।
अगर आप इतिहास के पन्ने को पलटिएगा तो पाइयेगा हर परिवर्तन, हर क्रांति, हर जागरण विरोध से ही शुरू हुआ।
जब राजा जनक की सभा में सीता स्वयंवर हुआ, तो केवल राम ने शिवधनुष तोड़ा — क्योंकि उनमें कर्तव्य और सामर्थ्य का साहस था।
जब अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया, तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सावरकर , सुभाष — सबने विरोध किया। वे जानते थे कि चुप रहना मतलब दासता स्वीकार करना है।
बुद्ध ने समाज की जड़ताओं का विरोध किया, कबीर ने पाखंड का विरोध किया, विवेकानंद ने पराधीन मानसिकता का विरोध किया।
इन सबका विरोध ही उन्हें “महान” बनाता है।
विरोध करना व्यक्ति के भीतर के चेतन मन और विवेक का प्रमाण है।
जो अन्याय को देखकर मौन रहता है, वह अपनी आत्मा को सुन्न कर देता है।
विरोध का अर्थ है — “मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।”
जब व्यक्ति सोचना बंद कर देता है, तब वह भीड़ का हिस्सा बन जाता है, और भीड़ केवल अनुसरण करती है — बिना यह जाने कि वह किस दिशा में जा रही है।
विरोध इतना आसान भी नहीं होता। विरोध करने वाले को समाज “असभ्य”, “विद्रोही” या “पागल” कहता है।
उस पर अत्याचार होते हैं, उपहास किया जाता है, लेकिन इतिहास यही कहता है कि जो आज विरोध करता है, वही कल का मार्गदर्शक बनता है।
भगत सिंह को फांसी दी गई, पर आज हर देशभक्त उनका नाम गर्व से लेता है।
संत तुलसीदास को “रामचरितमानस” लिखने पर अपमानित किया गया, पर आज वह घर-घर में पूजे जाते हैं।
कुछ लोगो को कहते सुना जाता है “सब ऐसे ही चलता आया है।” परन्तु जिनमे कुछ करने की चाहत होती है वो कहते है “जो गलत है, वह बदलना चाहिए।”
अनुसरण करने वाले लोग समाज को स्थिर रखते हैं,
विरोध करने वाले समाज को गतिशील बनाते हैं।
अनुसरण करने वाले डर से जीते हैं,
विरोध करने वाले सत्य के लिए मरते हैं।
आज की स्थितियों को देखते हुए हमें कहना पड़ता है :-
आज समाज में अनेक प्रकार की अन्यायपूर्ण व्यवस्थाएँ हैं —
भ्रष्टाचार, जातिवाद, पक्षपात, दिखावा, असमानता।
यदि हम सब केवल चुप रह जाएँ और कहते रहें “मुझे क्या मतलब”,
तो याद रखिए — धीरे-धीरे हमारा विवेक मर जाएगा।
विरोध करना ज़रूरी है — शब्दों से, कलम से, और कर्म से।
विरोध करना समाज को जगाने की प्रक्रिया है।
हम निष्कर्ष के तौर पर कह सकते है कि जो व्यक्ति विरोध करता है, वही वास्तव में जीवित है,क्योंकि वह अपने विचारों, आत्मा और सत्य के प्रति जागरूक है।
विरोध करने वाला मनुष्य ईश्वर के उस अंश का प्रतीक है जो सृष्टि में चेतना भरता है।
इसलिए कहा गया है —
“अगर अन्याय के सामने मौन रहे,
तो तुम्हारी खामोशी भी अपराध बन जाती है।
जीना वही है जिसमें अन्याय के विरुद्ध बोलने का साहस हो।”
जीवित वही है जो सोचता है, सवाल करता है, और अन्याय का विरोध करता है —
बाकी सब केवल चलते-फिरते मुर्दे हैं।
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