शुद्धता और संकल्प का पर्व: खरना—छठ पूजा के महापर्व का हृदय
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म में सूर्योपासना का महापर्व 'छठ' केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि, कठोर तपस्या और प्रकृति के प्रति गहन कृतज्ञता का एक महायज्ञ है। चार दिनों तक चलने वाले इस अनुष्ठान का दूसरा दिन 'खरना' या 'लोहंडा' कहलाता है। यह कार्तिक शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है और इसे पूरे छठ पर्व का 'हृदय' कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह वह महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहाँ व्रती नहाय-खाय की शुद्धता को आत्मसात कर, अगले 36 घंटे के निर्जला (बिना पानी के) व्रत का संकल्प लेते हैं। खरना का शाब्दिक अर्थ ही 'शुद्धता' है। यह दिन व्रती को मानसिक, शारीरिक और वैचारिक रूप से पवित्र करता है, ताकि वह आगामी कठोर तपस्या के लिए तैयार हो सकें। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, खरना के दिन ही षष्ठी देवी (छठी मैया) का घर में आगमन होता है और वे भक्त को अपना आशीर्वाद देती हैं। सूर्य देव के साथ-साथ षष्ठी देवी की उपासना का यह दिन, छठ महापर्व के लिए वातावरण को भक्तिमय और सात्विक बनाता है। वैवश्वत मन्वन्तर द्वापरयुग में अंग राज एवं सूर्य पुत्र कर्ण का जुड़ाव:छठ पूजा महाभारत काल से शुरू हुई, जब सूर्य पुत्र कर्ण ने पहली बार सूर्य की पूजा की थी। कर्ण प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। माना जाता है कि उनकी इसी सूर्य-उपासना की परंपरा ने छठ पर्व का रूप लिया। स्वायम्भुव मन्वन्तर के राजा प्रियव्रत की कथा: एक अन्य कथा के अनुसार, राजा प्रियव्रत संतानहीनता से दुखी थे। महर्षि कश्यप के निर्देश पर उन्होंने कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को देवी षष्ठी (छठी मैया) की विधिवत पूजा की, जिसके फलस्वरूप उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। तभी से पुत्र-प्राप्ति और संतान के कल्याण के लिए छठी मैया की पूजा की परंपरा आरंभ हुई।
: द्वापर युग में, जब पांडव कठिन समय से गुजर रहे थे, तब द्रौपदी ने भी सूर्य देव से अपने परिवार के कल्याण की प्रार्थना करते हुए छठ व्रत रखा था। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उन्हें शक्ति और समृद्धि का आशीर्वाद दिया था। आरोग्य और ऊर्जा के देवता भगवान सूर्य और छठी मैया (जो संतान, जीवन और प्रकृति की देवी हैं) की कृपा प्राप्त करने का भाव निहित है।खरना का दिन पूर्ण रूप से शुद्धता और तपस्या को समर्पित होता है। दिनभर का उपवास: व्रती इस दिन प्रातःकाल स्नान कर, शुद्ध वस्त्र धारण करते हैं और पूरे दिन निर्जला उपवास रखते हैं। शाम के समय, व्रती मिट्टी के नए चूल्हे पर आम की लकड़ी या ईख के चपुए में अग्नि प्रज्वलित कर प्रसाद बनाते हैं। यह प्रसाद अत्यंत पवित्रता से पीतल के बर्तन में गुड़ की खीर (रसिया), रोटी या पूड़ी और केले के रूप में तैयार किया जाता है। आम की लकड़ी का प्रयोग शुद्ध और सात्विक माना जाता है, जो छठी मैया को प्रिय है।: प्रसाद तैयार होने के बाद, इसे सबसे पहले सूर्य देव और छठी मैया को अर्पित किया जाता है। पूजा के दौरान व्रती पवित्र मंत्रों का जप करते हैं, जैसे: "एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजोराशे जगत्पते। करुणाकर में देव गृहाणा अघ्र्यम नमोस्तु ते।। : व्रती सबसे पहले इसी महाप्रसाद को ग्रहण कर अपना दिनभर का उपवास खोलते हैं। इसे खरना का भोजन कहा जाता है। इस प्रसाद को ग्रहण करने के बाद ही, अगले 36 घंटे के निर्जला व्रत की शुरुआत होती है, जो छठ पूजा के अंतिम अर्घ्य तक चलता है। खरना के प्रसाद में उपयोग होने वाले ईख के कच्चे रस और गुड़ के सेवन से त्वचा रोग, आँखों की पीड़ा और शरीर के दाग-धब्बे समाप्त होते हैं। यह प्रसाद न केवल पेट का अन्न है, बल्कि आत्मा की तृप्ति और शरीर को उपवास के लिए ऊर्जा देने का क्षमता है।खरना का दिन मात्र धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक और सामाजिक प्रक्रिया है: 'खरना' आत्मसंयम, श्रद्धा और आत्मशुद्धि का प्रतीक है। व्रती इस दिन मन, विचार और कर्म की शुद्धता पर पूरा ध्यान केंद्रित करते हैं, जो कठोर व्रत के लिए मानसिक तैयारी है। यह माना जाता है कि इसी दिन से छठी मैया का घर में आगमन होता है और वे भक्तों को सुख, समृद्धि और आरोग्य का आशीर्वाद देती हैं। पारिवारिक एकता: खरना का प्रसाद पूरे परिवार और आस-पास के लोगों के साथ साझा किया जाता है, जो सामाजिक समरसता और भाईचारे की भावना को मजबूत करता है। मिट्टी के चूल्हे, आम की लकड़ी और प्राकृतिक सामग्रियों से प्रसाद बनाना प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण के संदेश को दर्शाता है। खरना छठ महापर्व की वह आधारशिला है, जिस पर 36 घंटे की तपस्या की इमारत खड़ी होती है। यह शुद्धता, संकल्प और दैवीय आशीर्वाद प्राप्त करने का एक अनुपम पर्व है, जो लोक आस्था और गहन भक्ति का प्रदर्शन करता है।
षष्ठी माता, जिन्हें लोकप्रिय रूप से छठी मैया कहा जाता है, हिंदू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं, जिनकी पूजा विशेष रूप से संतान के कल्याण, रक्षा और आरोग्य के लिए की जाती है। छठ पूजा में सूर्य देव के साथ इनकी आराधना का विशेष महत्व है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, सृष्टि की रचना करने वाली देवी प्रकृति ने स्वयं को छह भागों में विभाजित किया था।प्रकृति का जो छठा (षष्ठ) अंश था, वही षष्ठी देवी या छठी मैया कहलाया। इस कारण इन्हें प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ मातृ देवी स्वरूपों में से एक माना जाता है।सौर ग्रंथो और लोक कथाओं के अनुसार, षष्ठी देवी को ब्रह्मा जी की मानस पुत्री माना जाता है।उन्हें संतान की संरक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है, जो नवजात शिशुओं की रक्षा करती हैं और उन्हें दीर्घायु प्रदान करती हैं। बच्चों के जन्म के बाद छठे दिन उनकी पूजा का भी विधान है।
दक्षिण भारत में षष्ठी देवी को देवी देवसेना के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों के अनुसार, वे भगवान कार्तिकेय (स्कंद) की पत्नी हैं। वे देवताओं को युद्ध में सहायता पहुँचाने वाली, जगत को मंगल प्रदान करने वाली और समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी है । लोक मान्यताओं और कुछ धार्मिक कथाओं के अनुसार, छठी मैया को सूर्य देव की बहन बताया जाता है।इसी कारण, छठ पूजा के महापर्व पर सूर्य देव (भाई) और षष्ठी देवी (बहन) दोनों की संयुक्त आराधना की जाती है, जिससे दोनों का आशीर्वाद प्राप्त हो सके। छठ पूजा में षष्ठी माता की पूजा शुरू होने के पीछे राजा प्रियव्रत की कथा सर्वाधिक प्रचलित है:राजा प्रियव्रत को कोई संतान नहीं थी और वे इस दुख से पीड़ित थे।महर्षि कश्यप ने उन्हें पुत्रेष्टि यज्ञ करने की सलाह दी, जिसके बाद रानी मालिनी को एक पुत्र प्राप्त हुआ, लेकिन वह मृत पैदा हुआ।पुत्र के वियोग में जब राजा प्रियव्रत अपने प्राण त्यागने जा रहे थे, तब आकाश मार्ग से एक दिव्य देवी प्रकट हुईं।देवी ने अपना परिचय षष्ठी देवी के रूप में दिया और कहा कि वे संसार के सभी बालकों की रक्षा करती हैं और नि:संतानों को संतान देती हैं।देवी ने राजा के मृत पुत्र को अपने स्पर्श से पुनः जीवित कर दिया।षष्ठी देवी के आदेश पर राजा प्रियव्रत ने कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को विधिवत उनका व्रत और पूजन किया।इस कथा के बाद से ही संतान की कामना और संतान की लंबी आयु व कल्याण के लिए षष्ठी देवी यानी छठी मैया की पूजा की जाने लगी, जो आज छठ पूजा के रूप में प्रसिद्ध है। षष्ठी माता (छठी मैया) मातृत्व, रक्षा, आरोग्य और जीवन-ऊर्जा की देवी हैं, जो नि:संतानों को संतान सुख देती हैं और बच्चों के जीवन की रक्षा करती हैं।
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