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"​आलोचना का आत्म-छद्म"

"​आलोचना का आत्म-छद्म"

पंकज शर्मा
प्रिय मित्रों ​जो व्यक्ति निरंतर दूसरों के कर्म में छिद्रान्वेषण (कमियाँ ढूँढना) एवं दोषारोपण में प्रवृत्त रहता है, वे वस्तुतः अपनी आंतरिक रिक्तता का ही प्रक्षेपण (projection) कर रहे होते हैं। सकारात्मक प्रतिदान की अभिलाषा के बिना, केवल निंदा में तृप्ति खोजना यह प्रमाणित करता है कि उस व्यक्ति के भीतर आत्म-विश्वास एवं सच्ची ईमानदारी की निर्धनता है। जो ईर्ष्या के विष से दूसरों के मनोबल का अपकर्षण करके अपनी क्षुद्र सार्थकता खोजता है, वह भूल जाता है कि इसी विफलता के औचित्य हेतु वह स्वयं सृजन के मार्ग से विमुख हो रहा है।
​यह स्मरण रहे कि निर्माण की प्रक्रिया निंदा करने से कहीं अधिक कठिन है। जो व्यक्ति स्व-श्रम से उपलब्धि अर्जित करने की योग्यता रखता है, उसकी ऊर्जा अल्प आलोचना में नहीं, बल्कि विशाल सृजन में विनियोजित होती है। सार्थक जीवन तभी साकार होता है जब हम अपनी दृष्टि को बाह्य दोषों से हटाकर, आंतरिक सुधार एवं आत्म-उत्थान पर केंद्रित करें। हमें निंदक की बातों को अनसुना करके अपनी कर्मठता में स्थिर रहना चाहिए, क्योंकि कालांतर में, सच्ची उपलब्धि ही व्यर्थ की आलोचना पर निश्चित विजय प्राप्त करती है।

. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) 
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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