गौमाता: सनातन संस्कृति का प्राण और जीवन का आधार
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय संस्कृति, जिसे सनातन धर्म भी कहा जाता है, में गौमाता (गाय) को केवल एक पशु नहीं, बल्कि साक्षात देवी का स्वरूप माना गया है। ग्रंथों, उपनिषदों और पुराणों के अनुसार, मानवीय जीवन, संस्कृति और इतिहास का गौवंश के साथ एक अटूट संबंध है, जिसकी जड़ें सृष्टि की रचना के आदिकाल से जुड़ी हैं। गौमाता को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चारों पुरुषार्थों की सिद्धि का माध्यम माना गया है।
सनातन धर्म संस्कृति ग्रंथों के अनुसार, सृष्टि के आदिकाल में जब देवों और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया था, तो उस महान घटना का केंद्र गौवंश ही रहा। भगवान विष्णु ने कच्छप (कछुआ) अवतार लेकर सुमेरू पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया और वासुकी नाग को रज्जू (मथनी) बनाकर मंथन किया गया।इस मंथन के दौरान सबसे पहले अत्यंत भयंकर हलाहल विष की ज्वाला प्रकट हुई, जिससे सृष्टि त्राहि-त्राहि कर उठी। इस विष की ज्वाला से संसार को तारने के उद्देश्य से, मंथन में कार्तिक शुक्ल अष्टमी को रत्नस्वरूपा कामधेनु (सुरभि) का प्राकट्य हुआ। कामधेनु गाय में यह अलौकिक क्षमता थी कि वह समस्त मनोकामनाओं, संकल्पों और आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम थी। इसीलिए उसे 'सुरभि' (उत्तम सुगंध वाली) और 'कामधेनु' (इच्छाएं पूरी करने वाली) कहा गया। कामधेनु का प्राकट्य न केवल विष की उष्णता को शांत करने के लिए हुआ, बल्कि वह स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा थीं।
ब्रह्मा जी के आदेश पर सृष्टि रचना का कार्य प्रथम मनु स्वायम्भुव मनु को सौंपा गया था, जिनसे ही कामधेनु की उत्पत्ति का भी उल्लेख मिलता है। कालांतर में, राजा पृथु (जो भगवान विष्णु के अंशावतार माने जाते हैं) के काल में पृथ्वी ने अन्न, जल और औषधियों को अपने भीतर समा लिया, जिससे प्रजा अत्यंत दुखी और भूखी रहने लगी। वेन पुत्र राजा पृथु ने पृथ्वी की इस स्थिति से क्रोधित होकर धनुष-बाण उठा लिया और उसे नष्ट करने का प्रण लिया। तब पृथ्वी ने गाय का रूप धारण किया और राजा से प्रार्थना की।
पृथ्वी रूपी गौमाता की स्तुति के बाद, जन कल्याण के लिए राजा पृथु ने उचित वातावरण बनाकर गौदोहन किया। पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अन्न का दोहन किया, जिससे पृथ्वी पर कृषि का प्रारंभ हुआ। इसके बाद चंद्रमा को बछड़ा बनाकर महर्षियों ने ज्ञान का, इंद्र को बछड़ा बनाकर देवताओं ने अमृत का, प्रह्लाद को बछड़ा बनाकर दैत्यों ने मदिरा-आसव का और अन्य प्राणियों ने अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप पृथ्वी रूपी गौ का दोहन किया। राजा पृथु के स्नेह और पालन के कारण ही इस धरा को पृथ्वी नाम मिला। यह घटना दर्शाती है कि कृषि, अन्न उत्पादन और मानव संरक्षण में गौवंश का अटूट सहयोग और साथ रहा है।
ग्गौ संस्कृति में गौमाता को सर्वोच्च पूजनीय स्थान प्राप्त है। गौमाता के रोम-रोम में समस्त देवी-देवताओं का एवं समस्त तीर्थों का वास बताया गया है। तीर्थों में तीर्थराज प्रयाग का जो स्थान है, वही देवी-देवताओं में अग्रणी गौमाता का है। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी दुर्लभ है। एक ग्रास गौमाता को खिलाने से वह समस्त देवी-देवताओं को पहुँच जाता है।धर्मग्रंथों के अनुसार, समस्त देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करने के लिए गौभक्ति और गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। 'गौ मे माता ऋषभ: पिता में दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।' अर्थात: गाय मेरी माता है और ऋषभ (बैल) पिता हैं।
भगवान विष्णु के अवतारों का मूल उद्देश्य ही गौमाता, संत और धर्म की रक्षा करना रहा है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है:‘विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार । निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार ।।
द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने नंगे पांव जंगल-जंगल गौमाता को चराया। उनका 'गोपाल' नाम गौमाता की रक्षा और सेवा से ही जुड़ा है। गोपाष्टमी: शास्त्रों के अनुसार, जब बाल कृष्ण ने बछड़ों के बजाय गायों को चराना शुरू किया, वह शुभ तिथि कार्तिक शुक्ल अष्टमी थी। भगवान कृष्ण द्वारा गौचारण (गाय चराना) का कार्य आरंभ करने की वजह से ही इस तिथि को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है।गोवर्धन लीला: उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाकर पूर्ण बृजक्षेत्र की, विशेष रूप से गौवंश की, इंद्र के प्रकोप से रक्षा की।गौमाता की सेवा के पर्याय के रूप में राजा दिलीप का नाम भी विशेष रूप से लिया जाता है, जिन्होंने गुरु वशिष्ठ की गाय नंदिनी की सेवा की थी। यहां तक कि प्रभु राम का जन्म भी सुरभि गाय के दूध से तैयार खीर से माना गया है।
औषधियों के स्वामी धनवंतरी ने गौभक्ति और गौसेवा के बल पर ही आरोग्य प्रदायिनी पंचगव्य की रचना की। पंचगव्य, गौ दुग्ध (दूध), गौ घी (घृत), गौ दधि (दही), गौमूत्र और गोबर के मिश्रण को कहा जाता है।आयु: गौ माता के दूध से बने घी का एक अन्य नाम 'आयु' भी है, इसीलिए उसे 'आयुर्वै घृतम्' कहा गया है। इसका सेवन करने से व्यक्ति दीर्घायु होता है।: गाय के गोबर और मूत्र को एक पर्यावरण रक्षक के रूप में माना जाता था। शुद्धता बनाए रखने के लिए फर्श, घरों की दीवारों और रसोई में गोबर का इस्तेमाल किया जाता था।: गाय के गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी को मिलाकर बने गव्य को शरीर पर लगाने और स्नान करने से संक्रमण तथा रोगाणुओं से मुक्ति मिलता है।
गौ माता की महिमामयी और पूज्यनीयता हमारे जीवन के हर पहलू में दिखाई देती है
गौ माता के खुर से उड़ी हुई धूलि (गोधूलि) को सिर पर धारण करने वाले को तीर्थ के जल में स्नान और सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है।कुंडली दोष प्रतिदिन गौ माता के नेत्रों के दर्शन करने और उनकी पूजा करने से कुंडली के दोष समाप्त होते हैं।यात्रा की सफलता रास्ते में गौ माता को दाहिने से जाने देना या यात्रा की शुरुआत में बछड़े को दूध पिलाती गौ माता का दिखना यात्रा की सफलता सुनिश्चित करता है।बुरे स्वप्न बुरे स्वप्न दिखाई देने पर गौ माता का नाम लेने से कुछ ही दिनों में बुरे स्वप्न दिखने बंद हो जाते हैं।पितृ दोष पितृ दोष के कारण संघर्षमयी जीवन होने पर गौ माता को प्रतिदिन या हर अमावस्या के दिन रोटी, गुड़, हरा चारा आदि खिलाना पितृ दोष को समाप्त करता है।
वास्तु दोष जिस घर में गौ पालन किया जाता है, वहां का वास्तुदोष स्वतः ही समाप्त हो जाता है।
शुभ विवाह ज्योतिष शास्त्र में गोधूलि का समय (शाम का वह समय जब गौएं चरकर लौटती हैं और उनके खुरों से धूल उड़ती है) शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम माना गया है। हमारे शास्त्र, वेद और पुराण गौ महिमा से भरे हुए हैं, जो गौवंश के महत्व को स्पष्ट करते हैं।
अथर्वेद के अनुसार "मित्र ईक्षमाण आवृत आनंद:युज्यमानों , वैश्वदेवोयुक्त: प्रजापति विर्मुक्त: सर्पम्। एतद्वैविश्वरूपं सर्वरूपं गौरूपम् उपैनंविश्वरूपा: , सर्वरूपा: पशवस्तिष्ठन्ति य एवम् वेद।।" भावार्थ: देखते समय गौ मित्र देवता है, पीठ फेरते समय आनंद है, हल तथा गाड़ी में जोतते समय (बैल) विश्वदेव, जाने पर प्रजापति तथा जब खुला हो तो सबकुछ बन जाता है। यही विश्वरूप अथवा सर्वरूप है, यही गौरूप है। जो इस विश्वरूप का ज्ञान रखता है, उसके पास विविध प्रकार के पशु रहते हैं। अंगों में देवों का वास: विभिन्न ग्रंथों में कहा गया है कि गाय के अंगों में ईश्वर का वास है। बृहत्पराशर स्मृति, पद्मपुराण, सृष्टिखंड, और अथर्ववेद में गायों को संपत्तियों का भंडार कहा गया है। वेद में स्पष्ट रूप से गौवध का निषेध किया गया है: "माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यनाममृत्स्य नाभि: प्रश्नु वोचं चिकितुषे जनायमा गामनागादितिं वधिष्ट। "भावार्थ: गौ रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदितिपुत्रों की बहन तथा घृत रूप अमृत का खजाना है। प्रत्येक विचारशील मनुष्य को मैंने यही कहा है कि निरपराध व अवध्य गौ का कोई वध न करे। गौमाता, हमारी ऐसी मां हैं जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकते हैं और न कोई तीर्थ है। सनातन सत्य गौ, गोपाल, गीता, गायत्री और गंगा धर्मप्राण प्रणाम करने के लिए रोका था। परंतु तुम अति उत्साह और अभिमान में उसे अनदेखा कर अपने रथ पर आगे बढ़ गए। तुम्हारे इस अनादर से कामधेनु गाय अत्यंत रुष्ट हो गई और उसने तुम्हें शाप दिया कि जब तक तुम मेरी संतान की सेवा नहीं करोगे, तब तक तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं होगी।"
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