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नीलकंठ आ खंजन

नीलकंठ आ खंजन

श्री मार्कण्डेय शारदेयः
हमरा इयाद परता जे हर दशहरा के दिने दुअरिकाबो पासिन अपना अँचरा में तोपले नीलकंठ लेले अँगना में अइहन आ कहिहन; “ए मइया! आईं; लीलकंठ देखीं सभे”।माई नया-नया कपड़ा पहिरी भा पहिरले रही, तबे देखी।हमनियो के नया पहिरिये के देखेके कही।ऊ कही जे नीलकंठ के दर्शन नया ना पहिरिके कइला प∙ भा नया पहिरिके कइला प∙ ऊ आशीर्वाद देलें जे असही बनल रह∙।
नया पहिरल सम्पन्नता के आ पुरान-धुरान भा फाटल-मइल पहिरल विपन्नता के सूचक ह∙। यदि नीलकंठ दुरवस्था में देखिहें आ असही बनल रह∙ कहिहें त∙ दर्शन सुफल कइसे होई! एहिसे दुअरिकाबो लुकववले रहिहें आ जब माई पहिन-ओढ़िके आई त उघारिके देखइहें।माई दूनो हाथ जोड़िके प्रणाम करी आ हमनियो से करवाई।एकरा बाद कुछ नेछावर दी।तब ऊ अउर जगे जइहें।
जहाँ तक इयाद पर∙ता जे माई आ दुअरिकाबो के गइला के बादो पासीटोला के कवनो-ना-कवनो मेहरारू दशहरा के नीलकंठ लेके आवते रही आ शुभ दर्शन होते रही।बाकिर; जब से पटना रहे लगनी, तब से ओहिजा के हाल पता ना रहे।एहिजा पटना में दर्शन करे-करावेके चलन रहल कि ना; पता ना।हँ∙; अब मोबाइल के युग बा।एसे फैदा इहो बा जे कहाँ-कहाँ के कइसन-कइसन माल लोग फेसबुक, ह्वाट्स ऐप से सप्लाइ करत रहेलें।एही में दशहरा के फोटो रूप में नीलकंठ के दर्शनो हो जाला।
हम बचपन से नीलकंठे सुनत अइलीं।कुछ बरिस पहिले जब विजया दशमी प∙ आलेख तइयार करे लगलीं त∙ जनलीं जे एकर एगो नाम खंजनो ह∙।काहेंकि; कोश में खंजन, खंजरीट, कणाटीन, काकच्छद, काकच्छर्दि, खंजखेल, खंजखेट, तातन, मुनिपुत्रक, भद्रनामा, रत्ननिधि, गूढनीड, तंडक, चर, नीलकंठ, पीतसार, दत्यूह आ कणाटारक; अतना पर्याय मिललें।
हम त∙ सुनले आ कविता में पढ़ले रहीं जे खंजन एगो पंछी ह∙ जेकर आँखि तनी बड़ होला। एसे कवि लोग उपमा देलें।मृगनैनी लेखा खंजननैनी सुनले रहीं।बाकिर; नेत्र के उपमान के रूप में नीलकंठ के कबो ना सुनलीं आ ना अबो पवलीं।तब; मन में प्रश्न तिराये लागल जे हिरनी अस आँखि कहल जाला त∙ नीलकंठ अस काहें ना? पता ना; का रहस्य बा! पता ना; कोशकार समान आकृति भा कवना आधार प∙ समानार्थी बतवलें!
आजु हमनी का पशु-पक्षियन से कटले बानीजा त∙ पहचानलो मुश्किले नू बा! अबहियों कुछ सजीव पशु-पक्षियन के कसहूँ दर्शन हो जाता।जवना तरे वन-बाग कटाता, अनुमान कइल जा सकता जे आगे फोटवे देखिके पहचान करेके परी।हमरो एह जीवन से लगाव कहाँ रहल! कहले-सुनल आ पढ़ले कुछ जानकारी भइलि भा बिया।उहो कतना प्रामाणिक!
खैर; मान लेबेके बा जे खंजनो नीलकंठे ह आ नीलकंठो खंजने।जब विद्वाने लोग खंजन के चार भेद कइले बा त∙ ई स्पष्टे नू बा जे भेद के बावजूद चारो नाम एक दोसरा के सूचक हवें! देखल जाउ जे का कहल बा, का बतावल बा! त∙; एमें पहिला खंजनभेद बा कि ऊ मोट होला। ओकर कंठ उठल आ गला करिया होला।अइसन खंजन के भद्र कहल जाला।काहेंकि; ऊ कल्याणकारी होला।ओकर दर्शन कल्याणमय होला।दुसरका भेद बा कि कंठ से मुँह तक करिया होला।एकरो दर्शन मनोवांछित देबेवाला ह।एगो बा जेकर करिया गला में सफेद-सफेद बिन्दु होला।ई शुभदर्शन नइखे मानल।एसे रिक्तकृत् भा रिक्त कहाइल बा।चउथा बा ऊ जेकर रंग पीअर होला।ऊ गोपीत कहाला।ओकर दर्शन कष्टकर मानल गइल बा।
हम का बताईं; जबकि एहनिन के देखलही नइखीं! हम त∙ नीलकंठे देखले बानी. जवन मेले नइखे खात।खैर; हमरा वर्णन-विवेचन के आधार शब्दे बा।एसे एही माध्यम से पर्यायन प∙ बात कइल जा सकेला।त चलीं; पहिले नीलकंठे प∙ विचार क∙ लियाउ।
ई शब्द शिव आ मोरो खातिर आइल बा।पता ना; नीलकंठ पक्षी के कंठ नील होला कि ना। काहेंकि; हम जवना नीलकंठ के देखलीं, ओकर कंठ नील ना लउकल।कवनो-कवनो के होत होई।
हँ∙; हमनी किहाँ दशहरा के जवन नीलकंठ-दर्शन के परम्परा बिया, ऊ असही नइखे।देवमय आ दिव्यगुण युक्त मानिये के दर्शन आ नमस्कार के मन्त्रो आइल बा, जे अइसे बा—
“नीलकंठ शुभग्रीव सर्वकाम-फलप्रद।
पृथिव्याम् अवतीर्णोsसि खंजरीट नमोsस्तु ते।।
त्वं योगयुक्तः मुनिपुत्रकः त्वं अदृश्यताम् एषि शिखोद्गमेन।
त्वं दृश्यसे प्रावृषि निर्गतायां त्वं खंजनाश्चर्यमयो नमस्ते”।।
अर्थात्; ए नीलकंठ! ए खंजरीट!! ए शुभग्रीव!!! तू सभ कामना के पूरा करे खातिर धरती प∙ अवतार लेले बाड़∙।तहरा के नमस्कार बा।तू योगयुक्त मुनिपुत्र हव∙।तू आश्चर्यमय एसे बाड़∙ जे शिखोद्गम से (ग्रीष्म ऋतु से) अदृश्य रहेल आ वर्षा ऋतु के समाप्त होते प्रकट हो जाल∙।ए खंजन! तहरा के प्रणाम कर∙तानी।
एह दूनो मन्त्रन में नीलकंठ के साथे खंजरीट मुनिपुत्रक आ खंजनो आइल बा।एसे भेद के भुलाके समान मानत अर्थग्रहण कइल गइल बा।
ई त∙ भइल दशहरा के बात।ओघरी कवनो पेशेवरे नीलकंठ पकड़िके कमाये खातिर राजा, अधिकारी भा सेठ-साहूकार के दर्शन करावत होइहें।काहेंकि; दशमी के दर्शन करेके बा त∙ कवनो जरूरी नइखे नू कि ई लोग कहीं गइल आ सहजे नीलकंठ लउक गइल! हँ∙; ज्योतिष में अनदिनो दर्शन-फल बतावल गइल बा।देखल जाउ, स्थान-विशेष प∙ बइठल नीलकंठ के देखला के का फल ह∙—
“अब्जेषु गोषु गज-वाजि-महोरगेषु
राज्यप्रदः कुशलदः शुचिशाद्वलेषु।
भस्मास्थि-केश-नख-लोम-तुषेषु दृष्टो
दुःखं ददाति बहुशः खलु खंजरीटः”।।
अर्थात्; कमल प∙, गाइ प∙, हाथी प∙, घोड़ा प∙, साँप प∙ भा हरियर-हरियर घास से भरल स्थान प∙ नीलकंठ लउके त∙ शुभप्रद आ राज्यप्रद ह∙।यदि राख प, हाड़ प∙, बार, नोह आ रोआँ प∙ भा भूसी-भूसा प∙ लउके त∙ दुखप्रद ह∙।
एही तरे वराह मिहिर अपना ‘बृहत्संहिता’ में एगो अध्याये रखले बाड़ें— ‘खंजनक-लक्षणाध्यायः’।
खैर; अब पर्यायन के निरुक्ति प ध्यान दिहल जाउ, जेमें पहिला बा खंजन।ई ‘खज्’ धातु आ ‘ल्युट्’ (अन) प्रत्यय के योग से बनल बा।‘खज्’ धातु भचकिके-लँगड़िके चलला के अर्थ में आवेला।खंज शब्द के अर्थो लँगड़े होला।शायद; एकरो चाल में लँगड़ापन होला।तबो; प्रकृति के ई विशेषता ह कि केहू के ना त सर्वथा सुन्दरे बनवलस आ ना सर्वथा कुरूपे।कवनो गुण भर देलस त कवनो-ना-कवनो दोषो मढ़ि देलस।केहू के दोषे ऊपर कके गुण से भरपाई कइलस। एही से खंजन भले लँगड़ाइल चले, बाकिर ओकर आँखि कवियन के बड़ सोहाइल।कविजन खंजननयन के प्रयोग संस्कृतो में कइले बा आ परवर्ती भाषो में।
खंजरीट के व्युत्पत्ति में कहल गइल बा—‘खञ्ज इव ऋच्छति गच्छति इति’।एहिजा ‘ऋ’ धातु के ‘अर्’ होके ‘कीटन्’ (ईट) प्रत्यय के योग से ई शब्द बनल बा।एहिजो खंजने वाला अर्थ-ग्रहण बा।एही तरे खंजखेट बा, खंजरीटे लेखा एकरो व्युत्पत्ति बिया—‘खंज इव खेटति गच्छति, नृत्यन्निव भूमौ चरति इति’।मतलब; लँगड़ नियन चलेला भा धरती प नाचत चलेला।एही से मिलत-जुलत एगो अउरी शब्द बा—खंजखेल।एकरो अर्थ समाने बा— ‘खञ्ज इव खेलति, तद्वत् चलनात् इत्यर्थः’।
अब आइल जाउ कणाटीन, कणाटीर, कणाटीरक आ कणाटारक प∙।एमें पहिलका कणाटीन में कण दाना के अर्थ में बा आ आटीन ‘अट्’ धातु के साथे ‘ईनन्’ (ईन) प्रत्यय के योग से आटीन बनल बा। कण + आटीन = कणाटीन।मतलब; ई दाना के फेरा में घूमत रहेला।एही तरे कणाटीर बा।एहू में कण के साथे ‘अट्’ धातु बा।प्रत्यय में ‘ईनन्’ (ईन) के बदला ईरन् (ईर) लागल बा। कणाटीरको को कणाटीरे अस बा।खाली अतिरिक्त में ‘क’ प्रत्यय लागल बा। कणाटारको के स्थिति लगभग समाने बिया।
अब नीलकंठ के पर्याय काकच्छद आ काकच्छदि देखल जाउ त ई दूनो समाने बाड़ें।छद आ छदि; ई दूनों पाँख के बोधक बाड़ें।मतलब ई जे एकर पाँख कउआ अस होला।चर के त∙ कतने अर्थ बाड़ें।तबो; एकर पर्याय में ग्रहण बा।चरट शब्दो समाने बा।खाली ‘अटच्’ (अट) प्रत्यय लगला से तनी-मानी अर्थसौन्दर्यो बढ़ि गइल बा।काहेंकि; एकर व्युत्पत्ति में कहल गइल बा—‘चरति नृत्यतीव विचरति इत्यर्थः’।माने; ई अइसे चलेला, जइसे नाचत चलत होखे। समानार्थी तंडक में भी नृत्यात्मक गतिये के बोध बा—‘तण्डते नृत्यतीति’।तण्ड+ ण्वुल् (अक) प्रत्यय। एही तरे तातन बा।एहिजो ओकर मनोहर नृत्यमय गति ध्वनित बिया— ‘तातं मनोहरं यथा तथा नृत्ययतीति’।
एगो नाम बा गूढनीड।ई नाम बतावता जे नीलकंठ भा खंजन आपन घोसला अइसन जगे बनावेला, जहाँ लोग देखि ना पावे।‘गूढः गोपनस्थलस्थः गूढे गुप्तस्थाने वा नीडः कुलायः अस्य’।
पता ना; कइसे मुनिपुत्रक नाम परल! काहेंकि; एकर अर्थ मुनि के पुत्र ह∙।अगर मुनि के पुत्र ह त केकर? कइसे? एही तरे मुनिपुत्रो बा।बाकिर; मुनिपुत्र के अर्थ दमनक वृक्ष मानल गइल बा। जबकि; पुत्र आ पुत्रक दूनो समाने अर्थ के द्योतक हवें।मुनिपुत्र में पुत्र प्रियत्व के बोधक गृहीत बा।शायद; पुत्र सबसे अधिक प्रिय होला, एसे मुनिप्रिय के बदले मनिपुत्र रखल बा।हो सकेला जे नीलकंठो मुनिप्रिय होखे।तबे त कहल गइल बा—“त्वं योगयुक्तो मनिपुत्रकस्त्वं...”। पता ना; भद्रनामा आ रतनिधि; कइसे नाम परल! बाकिर; परल त∙ परल! ‘त्रिकांडशेष’ कही त मानही के नू परी! पुरुषोत्तमदेव के ई कोश ‘अमरकोश’ के परिवर्द्धित संस्करणे के रूप में बा तबे त कोशकार एकर नाम त्रिकांड, अर्थात् ‘अमरकोश’ के शेष, माने बचल शब्दन के संग्रह के रूप में बा! तबो; रतनिधि से स्पष्ट होता जे एकरा खातिर रतिक्रिया निधि लेखा गोपनीय होले।मनुष्य खातिर मैथुन त∙ गोपनीय हइये ह∙, एकरो खातिर ह∙, बुला।कउओ के इहे प्रकृति हिय∙।(हमार पुस्तक 'पशु-पक्षी: एगो अनुशीलन' से)
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