करवाचौथ प्रेम या नजारा
रचनाकार - डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"*"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""*
चाँद भी अब थका हुआ है,
हर दिन नया ग्रहण लिए,
कटता-मिटता मौन खड़ा है,
संध्या के अरण्य लिए।
पूर्णिमा की ओट में छुपकर,
अमावस का दर्द कहे,
क्या यही है प्यार जिसमें अब,
शर्तों की भी भीड़ रहे?
प्रेम था पहले नदी जैसा —
अविरल, निर्मल, शीतल जल,
आज बना वह स्वार्थ से भरा,
हृदय का कपट और छल।
न थरथराहट,न मन का कंपन,
न अंतर की गूंज कोई,
अब तो केवल स्टेटस अपडेट,
मोबाईल पर जाती ढोई।
कभी प्रेम था आरती जैसी,
दीप जला अरमानों का,
आज है एक प्रायोजित नाटक,
मंचन सिर्फ़ बयानो का।
कभी मिलन था आत्मा का,
अब तन की बस बोली,
अब सिर्फ दाम गिने जाते,
प्रेम रहा पैसों की होली।
पति निकम्मा, कामचोर है-
पत्नी कहती तीन सौ दिन,
एक दिन का उपवास भला,
क्या उतार सकता ऋण?
"करवाचौथ का चाँद" दिखे,
आँखें पर लगाकर चलनी,
क्या उस चांद की आत्मा,
नहीं होती होगी छलनी ?
प्रेमः न वाचा न द्रव्यैः,
न दृश्ये न विहारतः।
प्रेमः हि हृदयस्पर्शी,
आत्मा मध्ये नित्यतः॥
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