भट्टिकाव्य का शरद्वर्णन
-मार्कण्डेय शारदेय
‘भट्टिकाव्य’ संस्कृत साहित्य के रामाश्रयी महाकाव्यों में अन्यतम है।22 सर्गों में निबद्ध यह काव्य साहित्य के रस से मधुर तो है ही व्याकरण को साथ ले चलनेवाला भी है।इस कारण यह व्याकरण की नीरसता को साहित्य के रस से सिक्त करता है।सम्भवतः संस्कृत वाङ्मय में यह पहला वैयाकरण महाकाव्य है।एक नवीन प्रयोग है।
‘भट्टिकाव्य’ भट्टि कवि की रचना है या किसी और की; इस विषय में मत-भिन्नता है।कुछ लोग ‘वाक्यपदीय’ के रचयिता महावैयाकरण भर्तृहरि की कृति मानते हैं तो कुछ लोग भर्तृहरि के भाई या पुत्र को भट्टि मानते हैं।कुछ मतों के अनुसार महाराज विक्रमार्क के सौतेला भाई और उनके मन्त्री भी थे।एक मत के अनुसार वलभी के राजा भट्टारक ही भट्टि हैं।लेकिन; इस काव्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार जयमंगल ने कविवर को श्रीस्वामी का पुत्र माना है।पुनः कुछ लोगों ने भर्तृहरि या भर्तृस्वामी के रूप में भी देखा है।
नाम-जैसा नाम भी होता ही है।अतः इनका नाम भर्तृहरि और भट्टि मानने में कोई हानि नहीं। परन्तु; उलझन स्थितिकाल को लेकर भी है।फिर भी; ‘भट्टिकाव्य’ (22.35) से स्पष्ट होता है कि महाकवि भट्टि ने वलभी (सौराष्ट्र, गुजरात) के राजा श्रीधरसेन के शासनकाल में इसकी रचना की थी।वहाँ श्रीधरसेन राजा भी चार हुए।लेकिन; एक शिलालेख के अनुसार द्वितीय श्रीधरसेन ने किसी भट्टि नामक विद्वान को भूमिदान किया था।इस आधार पर कहा जा सकता है कि यही भट्टि होंगे और इनका समय छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध मान्य है।इसका मतलब यह कि यह महाकाव्य आज से लगभग चौदह सौ वर्ष पुराना है।
इस रामकथा से सम्बद्ध महाकाव्य का प्रारम्भ (प्रथम सर्ग) अयोध्या के राजा दशरथ की रानियों, दशरथ-पुत्रों के जन्म, चारों राजकुमारों की शिक्षाप्राप्ति से लेकर महर्षि विश्वामित्र के आगमन और अपने सिद्धाश्रम में यज्ञविरोधी राक्षसों के अत्याचार के निवारण के लिए राम-लक्ष्मण को अपने साथ सिद्धाश्रम (बक्सर) ले जाने तक का वर्णन है।वहीं द्वितीय सर्ग में अयोध्या से चलते समय शरद् ऋतु की मनोरम उपस्थिति के वर्णन के बाद ही कथा आगे बढ़ती है, जिसमें ताटकावध से मिथिला में चारों भाइयों के विवाह, पश्चात् परशुराम के मानभंग वर्णित है।
खैर; शरद्वर्णन की बात करें तो द्वितीय सर्ग के आदि के उन्नीस श्लोकों में इस ऋतु की व्याप्ति हृद्य है। कवि शुभारम्भ करते कहता है--
“वनस्पतीनां सरसां नदीनां तेजस्विनां कान्तिभृतां दिशां च।
निर्याय तस्याः स पुरः समन्तात् श्रियं दधानां शरदं ददर्श”।।(2.1)
अर्थात्; श्रीराम ज्योंही अयोध्या के राजमहल से बाहर खुले मार्ग में चले, त्योंही उन्होंने वृक्ष-लताओं, सरोवरों, नदियों, ग्रह-नक्षत्रों एवं सभी दिशाओं को शारद शोभा से सुशोभित देखा।
भाव यह कि अयोध्या से बक्सर तक की पैदल यात्रा में श्रीराम-लक्ष्मण को गुरुवर विश्वामित्र के साथ जब सूनसान वनों से गुजरना पड़ा तो रास्ते में रात को कहीं नदी-तालाब के तट पर या किसी आश्रम में विश्राम भी करना पड़ा।ऐसे में शरद् ऋतु के कारण प्रकृति में आए परिवर्तन को उन्होंने दिन-रात के बदलाव को साथ-साथ बढ़िया से महसूस किया।उन्हें यह ऋतु खूब भाई भी।
वस्तुतः शरदागम कन्या-तुला राशिगत सौर संक्रान्ति में व आश्विन-कार्तिक चान्द्र मासों में होता है।इस समय भगवान सूर्य दक्षिणायन तो रहते ही हैं दक्षिण गोलावलम्बी भी हो जाते हैं।इस कारण धीरे-धीरे शैत्य प्रभाव होने लगता है और इधर बरसात बीतने से मार्ग, आकाश तथा जलाशयों का जल भी स्वच्छ हो जाता है।ऐसे में समशीतोष्ण वातावरण के कारण मिठास आ जाती है।चन्द्रमा आह्लादक लगता है, निरभ्र नभ में तारे चमकते हैं एवं रवि की किरणें भी अपनी उष्णता कम करने लगती हैं।कार्तिक व्यतीत होते-होते ठंड उगते-बढ़ते पौधों-सी अपनी शक्ति बढ़ाने लगती है।मौसमी फल-फूलों से प्रकृति सुरभित-सुसज्जित हो जाती है। धरती का अंग-अंग ऐसा मनोहारी व सुखद हो जाता है कि वैसी अनुभूति कुछ हद तक वसन्त ही दे पाता है।सच पूछा जाए तो यह दक्षिणायन का वसन्तकाल है और वसन्त उत्तरायण का शरत्काल।इसीलिए कवि की दृष्टि से राघव राम ने जमीन से आसमान तक में शरद्गत प्रभाव का अनुभव किया।अब एक बिम्ब देखा जाए, जिसमें जलश्री स्थलश्री का अवलोकन कर रही है—
“वनानि तोयानि च नेत्रकल्पैः पुष्पैः सरोजैः च निलीनभृंगैः।
परस्परां विस्मयवन्ति लक्ष्मीम् आलोकयांचक्रुरिवादरेण”।।(2.5)
अर्थात्; इधर वन में अनेक फूल खिले हैं और उधर जलाशय में भी कमल खिले हैं।भौंरे मँड़रा रहे हैं।तो ऐसा लगता है कि जलाशय कमल-नेत्रों से एवं वन पुष्पनेत्रों से भ्रमरों के माध्यम एक-दूसरे की शोभा विस्मय के साथ निहार रहे हों।
लोक में शारद कमलों की बड़ी ख्याति है।इस कारण श्रीराम पर भी उनके सौन्दर्य एवं सुगन्ध का प्रभाव है।देखा जाए आगे भट्टि क्या कहते हैं—
“अदृक्षताम्भांसि नवोत्पलानि रुतानि चाश्रोषत षट्पदानाम्।
आघ्रायि गन्धवहः सुगन्धः तेनारविन्द-व्यतिषंगवान् च”।।(2.10)
अर्थात्; श्रीराम ने नए-नए खिले कमलों से भरे जलाशयों को देखा, भौंरे के गुंजार के बहाने उनकी बातें सुनीं और मन्द-मन्द गति से युक्त सुगन्ध वहन करती वायु के माध्यम से उन सरोजों को सूँघा भी।
‘भट्टिकाव्य’ में शरद् ऋतु के साथ ही कलहंस का कितना सुन्दर चित्रण है; देखा जाए—
“सितारविन्द-प्रचयेषु लीनाः संसक्तफेनेषु च सैकतेषु।
कुन्दाsवदाताः कलहंसमालाः प्रतीयिरे श्रोत्रसुखैः निनादैः”।।(2.18)
अर्थात्; श्वेत कमल के समूह में तथा फेनियाए बालुकामय तटों में छिपे कुईं के फूल-जैसा धप्-धप् सफेद कलहंसों की पाँत ऐसी लग रही थी कि समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहाँ बतखें हैं! केवल उनकी मीठी बोली ही बता रही थी कि इस शुक्ल-साम्राज्य में ये भी हैं।
अब भट्टि का हृदयावर्जक निषेधात्मक एकावलि अलंकार का निदर्शन विशेष अवलोकनीय है, जो रसिकों द्वारा सदा स्तुत्य है--
“न तज्जलं यन्न सुचारु पंकजं
न पंकजं तद्यदलीन-षट्पदम्।
न षट्पदोऽसौ न जुगुंज यः कलं
न गुंजितं तन्न जहार यन्मनः”।।(2.19)
अर्थात्; शरद ऋतु में ऐसा कोई जलाशय नहीं, जहाँ सुन्दर कमल नहीं खिले हों।ऐसा कोई कमल नहीं था, जिसपर भौंरे न हों।ऐसा कोई भौंरा नहीं था, जो गुंजन न कर रहा हो।ऐसा कोई गुंजन नहीं, जो मन को मुग्ध करनेवाला न हो। वस्तुतः महाकवि ने अपने महाकाव्य के इस द्वितीय सर्ग में रसात्मक शरत्कालीन जिन-जिन चित्रों को उपस्थित किया है, वे सभी प्रातिभ प्रकाशन के निकष हैं एवं साहित्यिकों के लिए आस्वाद्य भी हैं।*
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