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रावण-वध की परम्परा : ब्राह्मण-शिवभक्त के अपमान का सांस्कृतिक विरोधाभास

रावण-वध की परम्परा : ब्राह्मण-शिवभक्त के अपमान का सांस्कृतिक विरोधाभास

डॉ. राकेश दत्त मिश्र
1.  दशहरा और उसकी परम्परा

भारतीय संस्कृति में दशहरा या विजयादशमी का पर्व अत्यन्त प्राचीन, गम्भीर और बहुआयामी महत्व रखता है। नवरात्र के नौ दिनों तक माँ दुर्गा की आराधना और साधना सम्पन्न होने के बाद दशवें दिन विजयादशमी का पर्व आता है। इसे सदियों से "सत्य की असत्य पर विजय" और "धर्म की अधर्म पर विजय" का प्रतीक माना गया है।

भारत के अनेक क्षेत्रों में दशहरे के साथ देवी दुर्गा की असुर-विजय की कथा जुड़ी हुई है। कहीं महिषासुर के वध की स्मृति है, कहीं शुम्भ-निशुम्भ और रक्तबीज का संहार स्मरण किया जाता है। किंतु उत्तर भारत के अधिकांश भागों में दशहरे के साथ "राम-रावण युद्ध" और "रावण-दहन" की परम्परा प्रचलित हो चुकी है। यही वह बिन्दु है, जहाँ से गम्भीर सांस्कृतिक और दार्शनिक प्रश्न उठ खड़े होते हैं।

क्या सचमुच रावण का पुतला जलाना "धर्म" की विजय का प्रतीक है? क्या यह केवल एक ऐतिहासिक-धार्मिक परम्परा है, या इसमें किसी विशेष सांस्कृतिक दृष्टिकोण की पकड़ है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न — क्या रावण को केवल एक राक्षस मान लेना न्यायोचित है, जबकि वह वेदज्ञानी, ब्राह्मण-पुत्र और महाशिवभक्त था?
2. दशहरे का वास्तविक स्वरूप : शक्ति और असुर-वध

दशहरे की मूल जड़ें "शक्ति" की आराधना और "असुर-वध" की गाथाओं से जुड़ी हैं।


महिषासुर का वध — नवरात्र की कथा कहती है कि महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। तब देवताओं की शक्ति से उत्पन्न माँ दुर्गा ने उसका वध किया।


शुम्भ-निशुम्भ — ये असुर भी देवताओं को परास्त कर चुके थे। देवी ने उनका भी संहार किया।


रक्तबीज — इस असुर के रक्त की प्रत्येक बूँद से नया असुर जन्म लेता था। माँ काली ने उसे पीकर ही रक्तबीज का विनाश किया।

ये सभी घटनाएँ दुर्गा सप्तशती और मार्कण्डेय पुराण में वर्णित हैं। इन कथाओं का उत्सव "विजयादशमी" के रूप में मनाया जाता था।

अर्थात् प्रारम्भ में दशहरा का सम्बन्ध "देवी की शक्ति" और "असुर-वध" से था, न कि "राम-रावण युद्ध" से। बाद में जब वैष्णव परम्परा प्रबल हुई, तब रावण-वध और रावण-दहन को विजयादशमी से जोड़ दिया गया। यही एक बड़ा सांस्कृतिक मोड़ है।
3. रावण : वंश, शिक्षा और व्यक्तित्व

रावण का परिचय केवल एक "राक्षस" के रूप में देना अधूरा और अन्यायपूर्ण है।


रावण पौलस्त्य ब्राह्मण वंशज था। उसके पिता ऋषि विश्रवा महान तपस्वी और विद्वान थे।


"विश्रवण > रवण > रावण" शब्द-विकास इस बात का प्रमाण है कि वह "विश्रवा का पुत्र" था।


वह वेदविद्याव्रतस्नातः कहलाता है — अर्थात् वेदों का ज्ञाता, व्रतशील और तपस्वी।


उसने शास्त्र और शस्त्र दोनों में अद्वितीय दक्षता प्राप्त की थी।

वाल्मीकि रामायण और अन्य ग्रन्थों में उसके अनेक गुणों का उल्लेख मिलता है — वह पराक्रमी था, संगीतज्ञ था, और सबसे बढ़कर एक अटूट शिवभक्त था।
4. रावण और शिवभक्ति

रावण का सबसे महत्वपूर्ण आयाम उसकी शिवभक्ति है।
(क) वैद्यनाथ धाम की कथा

कथा है कि रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। जब भोलेनाथ प्रसन्न हुए, तो उसने लंका में एक ज्योतिर्लिंग की स्थापना का वर माँगा। शिव ने उसे लिंग प्रदान किया, पर शर्त रखी कि यदि इसे मार्ग में कहीं रखा गया, तो वहीं यह स्थापित हो जाएगा। देवताओं ने षड्यंत्र करके गंगा तट पर रावण से वह लिंग रखवा दिया। वही आज "बाबा वैद्यनाथ धाम" (देवघर, झारखंड) के रूप में प्रसिद्ध है।

इस प्रकार इस तीर्थ का श्रेय रावण को ही है।
(ख) शिवताण्डवस्तोत्रम्

विश्वप्रसिद्ध शिवताण्डवस्तोत्रम् का रचयिता भी रावण ही है। इसमें शिव के ताण्डव की अद्भुत, लयबद्ध और अलौकिक स्तुति की गई है। आज भी सभी शिवभक्त इसे बड़े श्रद्धा से पढ़ते हैं।

अब प्रश्न यह है कि — जो समाज हर वर्ष रावण का पुतला जलाता है, वही किस मुँह से रावण-रचित शिवताण्डवस्तोत्र का पाठ करता है? क्या यह आत्मविरोध नहीं है?
5. "रावण" शब्द की व्याख्या

वाल्मीकि और अधिकांश रामकथाकारों ने "रावण" शब्द को "रुलानेवाला" के अर्थ में लिया है। यह व्याख्या एक साहित्यिक प्रतीक हो सकती है, परन्तु इससे उसका वास्तविक अर्थ दब गया।

"रावण" शब्द का मूल रूप "विश्रवण" है, जो "विश्रवा का पुत्र" दर्शाता है। अतः उसे केवल "रुलानेवाला" मान लेना, वास्तव में उसकी विद्वत्ता और परम्परा को नकारना है।
6. रामायण में रावण का चित्रण

वाल्मीकि रामायण में रावण का चित्रण बहुस्तरीय है।


वह बलवान और पराक्रमी योद्धा है।


वह शिवभक्त है और यज्ञों में आहुति देता है।


वह वेदज्ञानी है, मंत्र-तंत्र में निपुण है।

किन्तु चूँकि राम को "मर्यादा पुरुषोत्तम" के रूप में स्थापित करना था, इसलिए रावण का नकारात्मक पक्ष अधिक उभारा गया। कई कथाकारों ने उसे जानबूझकर "राक्षस" के रूप में प्रस्तुत किया, ताकि राम का उत्कर्ष अधिक प्रखर दिखे।
7. रावण-वध और रावण-दहन : एक सांस्कृतिक विरोधाभास

अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है — क्या हर दशहरे पर रावण का पुतला जलाना उचित है?


रावण ब्राह्मण और ऋषिपुत्र था। उसका पुतला दहन वास्तव में ब्राह्मण-समाज का अपमान है।


रावण शिवभक्त था। उसका दहन करके हम शैव परम्परा का अपमान करते हैं।


जो समाज रावण-रचित शिवताण्डवस्तोत्र पढ़ता है, वही उसका पुतला जलाता है — यह विरोधाभास और पाखण्ड है।

इस दृष्टि से देखा जाए तो रावण-दहन की परम्परा "असत्य पर सत्य की विजय" का नहीं, बल्कि एक पक्षपाती सांस्कृतिक राजनीति का प्रतीक है।
8. समाजशास्त्रीय दृष्टि : रावण-दहन क्यों लोकप्रिय हुआ?

इतिहासकारों का मत है कि जब वैष्णव भक्ति परम्परा प्रबल हुई, तब दशहरे को "राम-रावण युद्ध" से जोड़ा गया।


यह "वैष्णव बनाम शैव" संघर्ष की सांस्कृतिक झलक थी।


राम को आर्य और धर्म का प्रतीक दिखाने के लिए रावण को "असुर" और "राक्षस" बताया गया।


लोकनाट्य और रामलीला की परम्परा ने रावण-दहन को जनसामान्य में लोकप्रिय बना दिया।

इस प्रकार एक विद्वान, ब्राह्मण और शिवभक्त का चरित्र धीरे-धीरे "राक्षस" में बदल दिया गया।
9. आधुनिक युग में पुनर्मूल्यांकन

आज के युग में हमें इस परम्परा पर पुनर्विचार करना चाहिए।


दशहरा का पर्व असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक अवश्य है, परन्तु इसे केवल "रावण-दहन" तक सीमित करना अनुचित है।


हमें रावण को "राक्षस" नहीं, बल्कि एक विद्वान और शिवभक्त के रूप में स्मरण करना चाहिए।


रावण-दहन की परम्परा को समाप्त करके, दशहरे को केवल "विजयादशमी" के रूप में मनाना अधिक उचित होगा।
10. निष्कर्ष : रावण का सही मूल्यांकन

रावण का चरित्र हमें यह सिखाता है कि—


ज्ञान, शक्ति और भक्ति का दुरुपयोग विनाश का कारण बनता है।


वह विद्वान था, शिवभक्त था, परन्तु अहंकार और आसक्ति ने उसे पतन की ओर धकेल दिया।


इसलिए उसका स्मरण हमें "संयम" और "मर्यादा" का महत्व समझाता है।

किन्तु प्रतिवर्ष उसका पुतला बनाकर जलाना, ब्राह्मणिक और शैव परम्परा का अपमान है। हमें दशहरे को "धर्म की विजय" का पर्व मानना चाहिए, पर रावण-दहन की परम्परा को त्यागकर उसके चरित्र का सम्यक् मूल्यांकन करना चाहिए।
उपसंहार

विजयादशमी का वास्तविक सन्देश यह है कि अहंकार, असत्य और अधर्म का नाश होता है। यह सन्देश रावण के जीवन से भी मिलता है, पर उसका पुतला जलाकर नहीं, बल्कि उसके चरित्र का गम्भीर अध्ययन करके।

आज समय आ गया है कि हम इस परम्परा पर पुनर्विचार करें और कहें :
👉 “दशहरा असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है, रावण-दहन का नहीं।”

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