हिन्दी
हिन्द का कोयल कुहूक रही है ,हिन्द का पपीहा डहक रही है ।
चीख रहा अब यह हिन्द हमारा ,
जयहिंद में हिन्दी जय नहीं है ।।
कौआ है बोलता काॅंव काॅंव ,
बंदर भी बोलता खाॅंव खाॅंव ।
कौआ बंदर के इस झगडे में ,
साध रही लोमड़ी निजी दाॅंव ।।
ध्वज कहे हम एक ही हिंद में ,
राष्ट्रगान कहे हम एक हिंद में ।
भारत कहे मैं जननी सबकी ,
एक राष्ट्र का एक लय नहीं है ।।
जाति अनेक और धर्म अनेक ,
रहन सहन भोजन अनेक है ।
बहुत कुछ तो है अनेक किंतु ,
राष्ट्र हमारा तो केवल एक है ।।
राष्ट्रभाषा तो है यह अपनी ,
किसी द्वारा कभी क्रय नहीं है ।
भाषा हमारी सदियों पुरानी ,
हिन्दी हमारी कभी द्वय नहीं है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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