"चुप्पी का शोकगीत"
पंकज शर्मा
बड़ी खामोश है यह दिशाओं की अनुगूँज,
मानो समय ने अपने शंख को
अचानक मौन के गर्त में डाल दिया हो।
निशब्द वृक्षों की शाखाएँ
वायु से नहीं हिलतीं,
जैसे वे भी किसी अदृश्य भय से
संयत खड़े हों।
मनुष्य की आँखों में ज्वाला है,
पर अधरों पर ताला—
यही है चुप्पी की दग्ध व्यथा।
दीपक टिमटिमाते हैं
पर बाती सिसकियों में भींग जाती है,
कहीं भीतर घुटता हुआ धुआँ
आकाश तक पहुँचने का साहस नहीं करता।
यह मौन, केवल अभाव नहीं,
बल्कि एक अदृश्य शृंखला है
जो आत्मा को धीरे-धीरे बाँधती जाती है।
नदी का जल बहता है,
पर कलकल ध्वनि गुम है—
मानो लहरों ने अपनी जिह्वा
पाषाणों में छिपा ली हो।
हर दिशा में प्रश्न हैं,
पर उत्तरों की थाली खाली है,
जैसे देवताओं ने संवाद का वरदान
वापस खींच लिया हो।
ओह, यह चुप्पी—
एक जलता हुआ हिमखंड है,
बाहर शीतल, भीतर प्रज्वलित,
जो मानवता को धीरे-धीरे
स्वयं की राख में बदल रहा है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
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