भारत की तरक्की में बाधा : जातिवाद, धर्म, भाषा और आरक्षण की राजनीति
✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारत 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ। उसी कालखण्ड में कई और देश गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हुए – चाहे वह सिंगापुर हो, मलेशिया हो, या फिर इज़रायल। इन देशों ने आज़ादी के तुरंत बाद ठोस नीतियाँ बनाईं, सशक्त नेतृत्व दिया और आज वे विश्व मंच पर मज़बूत व समृद्ध राष्ट्र बनकर खड़े हैं। लेकिन भारत, जिसकी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध मानी जाती है, आज भी अनेक आंतरिक रोगों से जूझ रहा है।
जातिवाद, धर्मवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद जैसे सामाजिक विभाजन हमारे राष्ट्रीय जीवन को खोखला करते रहे हैं। इसके ऊपर से स्वतंत्रता के बाद बने कमजोर कानून और तथाकथित "आरक्षण की राजनीति" ने इस रोग को और गहरा कर दिया है। आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हम "विकसित भारत" का सपना अधूरा लिए खड़े हैं।
1. स्वतंत्रता और विश्व की तुलना
सिंगापुर : 1965 में स्वतंत्र हुआ। संसाधन सीमित थे, परंतु वहाँ के नेतृत्व ने शिक्षा, उद्योग और अनुशासन पर बल दिया। आज वह विश्व के सबसे समृद्ध देशों में गिना जाता है।
इज़रायल : 1948 में अस्तित्व में आया। चारों ओर दुश्मन देशों से घिरा होने के बावजूद विज्ञान और कृषि तकनीक में चमत्कार कर आज "स्टार्ट-अप नेशन" कहलाता है।
चीन : 1949 में कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। कठोर नीतियों और अनुशासन से चीन ने आर्थिक महाशक्ति का रूप ले लिया।
भारत भी इन्हीं वर्षों में आज़ाद हुआ, लेकिन विभाजन की पीड़ा, कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति, और सबसे बड़ी बात – आंतरिक विभाजन ने हमें पीछे धकेल दिया।
2. जातिवाद की जड़ें
भारतीय समाज का ढाँचा प्राचीन काल से वर्ण व्यवस्था पर आधारित रहा। प्रारंभिक काल में यह "कर्म आधारित" था, लेकिन धीरे-धीरे "जन्म आधारित" जातिवाद में बदल गया।
जाति के नाम पर सामाजिक भेदभाव ने समाज को कई हिस्सों में बाँट दिया।
स्वतंत्रता के बाद अपेक्षा थी कि जातिवाद की जंजीरें टूटीं, लेकिन उल्टा हुआ – राजनीति ने इसे वोट बैंक के रूप में उपयोग किया।
आज स्थिति यह है कि चुनाव परिणाम जातीय समीकरण तय करते हैं, न कि विकास और नीतियाँ।
3. धर्म और भाषा के आधार पर विभाजन
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद भारत में धर्म राजनीति का सबसे बड़ा औज़ार बना।
वोट बैंक की राजनीति ने मुसलमानों, ईसाइयों और हिन्दुओं के बीच खाई को और गहरा किया।
भाषा के आधार पर राज्यों का गठन (1956) तो एक प्रशासनिक ज़रूरत थी, लेकिन इससे क्षेत्रवाद और भाषावाद भी बढ़ा।
आज भी हिंदी बनाम गैर-हिंदी, उत्तर बनाम दक्षिण, मराठी बनाम गैर- मराठी जैसी समस्याएँ सामने आती रहती हैं।
4. घटिया कानून और प्रशासन की कमजोरी
भारत में कानून अक्सर "न्याय" की जगह "वोट बैंक" को ध्यान में रखकर बनाए गए।
दंगे-फसाद, जातीय संघर्ष, आरक्षण आंदोलनों पर कठोर कार्रवाई करने में सरकारें असफल रहीं।
भ्रष्टाचार ने कानून व्यवस्था को खोखला कर दिया। परिणामतः आज भी आम नागरिक का विश्वास न्याय प्रणाली पर पूरी तरह नहीं है।
5. आरक्षण : सामाजिक न्याय या राजनीतिक हथियार?
आरक्षण की पृष्ठभूमि
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 10 वर्षों तक आरक्षण का प्रावधान किया था, ताकि वे मुख्यधारा में आ सकें। लेकिन राजनीति ने इसे स्थायी और अनियंत्रित बना दिया।
समस्याएँ
योग्यता का हनन : प्रतिभावान युवाओं के अवसर छिन जाते हैं।
सामाजिक विभाजन : "हम बनाम वे" की मानसिकता और गहरी होती है।
वोट बैंक : नेता जाति आधारित आरक्षण बढ़ाकर राजनीतिक लाभ उठाते हैं।
गरीब सवर्ण उपेक्षित : आरक्षण का लाभ अक्सर सम्पन्न वर्ग लेता है, वास्तविक वंचित तबका पीछे छूट जाता है।
परिणाम
प्रशासनिक मशीनरी में दक्षता का ह्रास।
समाज में असमानता और ईर्ष्या का विस्तार।
प्रतिभा पलायन – लाखों युवा विदेशों में अवसर खोजने को मजबूर।
6. तरक्की की दौड़ में पीछे क्यों रह गए हम?
नीतिगत अस्थिरता : हर सरकार अपनी राजनीति के हिसाब से नीति बदलती रही।
जातीय और धार्मिक राजनीति : विकास के बजाय समाज को बाँटकर सत्ता पाई जाती रही।
भ्रष्टाचार और लालफीताशाही : संसाधन होने के बावजूद उनका सही उपयोग नहीं हुआ।
कमज़ोर शिक्षा व्यवस्था : देश की सबसे बड़ी आबादी आज भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित।
आरक्षण का जहर : योग्यता को दरकिनार कर केवल जाति आधारित अवसर देना।
7. सुधार की आवश्यकता
आरक्षण की समीक्षा
आरक्षण को "आर्थिक आधार" पर सीमित करना चाहिए।
अधिकतम अवधि तय होनी चाहिए, अनंतकाल तक नहीं।
कानून का सशक्तिकरण
दंगों, जातीय हिंसा और भ्रष्टाचार पर शून्य सहिष्णुता।
तेज़ और निष्पक्ष न्याय प्रणाली।
शिक्षा और रोजगार पर बल
सभी को समान अवसर वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा।
कौशल विकास और उद्योग आधारित शिक्षा।
राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा
जाति, धर्म और भाषा से ऊपर उठकर "भारतीय" की पहचान स्थापित करना।
मीडिया और शिक्षा दोनों में राष्ट्रीय एकता पर बल।
8. उपसंहार
भारत की समस्या यह नहीं कि हमारे पास संसाधन नहीं हैं या प्रतिभा नहीं है। असली समस्या है – आंतरिक विभाजन और कमजोर नीतियाँ। जब तक हम जातिवाद, धर्मवाद और आरक्षण की राजनीति से ऊपर नहीं उठेंगे, तब तक सच्चे अर्थों में "विकसित भारत" का सपना अधूरा ही रहेगा।
आज ज़रूरत है कि हम "वोट बैंक" से ऊपर उठकर "राष्ट्र बैंक" की सोच अपनाएँ। समाज को बाँटने वाली नीतियों के स्थान पर "समान अवसर" देने वाली नीतियाँ बनें। तभी भारत विश्व गुरु बनने के अपने गौरवशाली लक्ष्य तक पहुँच पाएगा।
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