"विभक्त छाया का स्वर"
पंकज शर्मायह चेहरा—
जैसे टूटी हुई चाँदनी का धुंधला दर्पण,
जहाँ रेखाएँ नहीं,
आकांक्षाएँ बहती हैं
रंगों की निस्तब्ध धाराओं में।
अनगिन नेत्र—
किसे निहारते हैं?
कौन-सा सत्य तलाशते हैं?
हर पुतली—एक अनन्त द्वार,
जिसके पार
विरह की संचित आहें
नक्षत्र बनकर चमकती हैं।
मुख—
मौन है,
किन्तु इस मौन में छुपा है
एक अस्फुट रुदन,
एक अविरल गान—
जिसे कोई सुन नहीं पाता,
केवल अनुभव करता है
मन के सूने प्रकोष्ठों में।
आधा चेहरा—
राख की तरह निस्तेज,
आधा—
ज्वाला की तरह उद्दीप्त।
मानो जीवन और मृत्यु
एक ही देह पर
विलीन हो रहे हों
संध्या की निस्तब्ध घड़ी में।
अज्ञात छायाएँ—
धरती के गर्भ से उठी स्मृतियाँ,
जो अपनी दृष्टि बिखेरती हैं
नील आकाश की ओर।
वे ही तो हैं—
विस्मृत आत्माएँ,
जो हमारे भीतर सोकर
जगना चाहती हैं।
हर नेत्र—
एकाकी, फिर भी एकाकार।
कोई ऊपर, कोई भीतर,
कोई समय के गर्त में।
पर सब मिलकर
एक ही दृष्टि रचते हैं—
पूर्णता का अमर स्वप्न।
यह चित्र कहता है—
मनुष्य स्वयं ही एक ब्रह्माण्ड है,
जहाँ हर टूटन
एक नक्षत्र बन जाती है,
और हर मौन—
एक गान।
ओ विभक्त मुख!
तेरे विखंडन में ही छुपा है
समग्र का शाश्वत रहस्य,
तेरी छाया में ही झलकती है
अमृत की झिलमिलाती धारा।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
जैसे टूटी हुई चाँदनी का धुंधला दर्पण,
जहाँ रेखाएँ नहीं,
आकांक्षाएँ बहती हैं
रंगों की निस्तब्ध धाराओं में।
अनगिन नेत्र—
किसे निहारते हैं?
कौन-सा सत्य तलाशते हैं?
हर पुतली—एक अनन्त द्वार,
जिसके पार
विरह की संचित आहें
नक्षत्र बनकर चमकती हैं।
मुख—
मौन है,
किन्तु इस मौन में छुपा है
एक अस्फुट रुदन,
एक अविरल गान—
जिसे कोई सुन नहीं पाता,
केवल अनुभव करता है
मन के सूने प्रकोष्ठों में।
आधा चेहरा—
राख की तरह निस्तेज,
आधा—
ज्वाला की तरह उद्दीप्त।
मानो जीवन और मृत्यु
एक ही देह पर
विलीन हो रहे हों
संध्या की निस्तब्ध घड़ी में।
अज्ञात छायाएँ—
धरती के गर्भ से उठी स्मृतियाँ,
जो अपनी दृष्टि बिखेरती हैं
नील आकाश की ओर।
वे ही तो हैं—
विस्मृत आत्माएँ,
जो हमारे भीतर सोकर
जगना चाहती हैं।
हर नेत्र—
एकाकी, फिर भी एकाकार।
कोई ऊपर, कोई भीतर,
कोई समय के गर्त में।
पर सब मिलकर
एक ही दृष्टि रचते हैं—
पूर्णता का अमर स्वप्न।
यह चित्र कहता है—
मनुष्य स्वयं ही एक ब्रह्माण्ड है,
जहाँ हर टूटन
एक नक्षत्र बन जाती है,
और हर मौन—
एक गान।
ओ विभक्त मुख!
तेरे विखंडन में ही छुपा है
समग्र का शाश्वत रहस्य,
तेरी छाया में ही झलकती है
अमृत की झिलमिलाती धारा।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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