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ग़म में खुलकर मुस्कुराना चाहती हूँ, आग पानी में लगाना चाहती हूँ ----

ग़म में खुलकर मुस्कुराना चाहती हूँ, आग पानी में लगाना चाहती हूँ ----

  • हिन्दी पखवारा के चौथे दिन साहित्य सम्मेलन में आयोजित हुआ कवयित्री सम्मेलन
पटना, ८ सितम्बर। स्त्री-मन के विविध रूपों और उनके संवेगों को अभिव्यक्ति देने वाली सुमधुर कविताओं और गीत-ग़ज़लों से बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभागार सोमवार को संध्या तक मस्ती में डूबा रहा। अवसर था हिन्दी-पखवारा के अंतर्गत सम्मेलन में आयोजित कवयित्री सम्मेलन का। सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुए इस मधुर-गोष्ठी में दो दर्जन से अधिक कवयित्रियों ने अपने मन के उद्वेगों को शब्दों में अभिव्यक्ति दी।

कवयित्री-सम्मेलन का उद्घाटन करती हुईं, पूर्व विधायक और विदुषी प्राध्यापिका प्रो किरण घई ने कहा कि हिन्दी भारत की आत्मा की भाषा है। इसलिए अपनी भाषा का अभिमान हमें अवश्य होना चाहिए। हमने स्वतंत्रता-संग्राम में हिन्दी को शास्त्र बनाया और विजयी हुए। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित पूर्व विधायक डा उषा विद्यार्थी ने कहा कि महान कवयित्री महादेवी वर्मा की नवीन पीढ़ियाँ आज तेजस्विनी रूप में हमारे समक्ष है, इससे हिन्दी की आशाएँ बढ़ती हैं। ये कवयित्रियाँ हमारी आशाओं की किरणें हैं।

सुकंठी कवयित्री आराधना प्रसाद ने हिन्दी की महिमा में अपनी इन पंक्तियों को सस्वर दिया कि, "दिया माँ ने जो बचपन में वही मुस्कान है हिन्दी/ जिसे आशीष में पाया वही वरदान है हिन्दी/ कभी गीतों में, ग़ज़लों में, कभी दोहे, रुबाई में / ये तुलसी, सूर, मीरा है, कभी रसखान है हिन्दी"।

शायरा ज़ीनत शेख़ की इन पंक्तियों को खूब सराहना मिली कि "अब मैं खूद को आज़माना चाहती हूँ/ ग़म में खुल कर मुस्कुराना चाहती हूँ/ आग पानी में लगाना चाहती हूँ"। अनुपमा सिंह का कहना था- " ज़िंदगी है जो ख्वाहिशें बुनती जा रही है/ कमबख़्त उम्र है जो निकलती जा रही है/ मन है एक पंछी की तरह अरमानों के पंख लिए/ हौले से कानों में कुछ कहती जा रही है"। अंग्रेज़ी के भक्त भारतीयों पर प्रहार करती हुई डा सुमेधा पाठक ने कहा- “वाह रे हिंदुस्तानी! शायद भूल गए अपनी नानी/ अब तो अंग्रेज़ी हुई घरवाली/ हिन्दी को बना दिया बाहर वाली!”
मीरा श्रीवास्तव ने ज़िंदगी को इस लहजे से देखा कि " तुमको रहती है सब की खबर ज़िंदगी। क्यों न करते हम तेरी कदर ज़िंदगी। उम्र भर कोई ख़ुशियाँ छुपाता रहा/ कोई ग़म में करता रहा बशर ज़िंदगी"। राजकांता राज का कहना था - “रंग, बिरंगी सजी काँच की चूड़ियाँ/ हैं बहुत क़ीमती काँच की चूड़ियाँ/ हर किसी हाथ में ये खनकती नहीं/ रोज़ ही टूटती काँच की चूड़ियाँ।"

कवयित्री डा पूनम आनन्द, डा पुष्पा जमुआर, डा विद्या चौधरी, डा सुमेधा पाठक, शायरा शमा कौसर 'शमा', डा शमा नासनीन नाजां, डा प्रतिभा पराशर, मधु रानी लाल, डौली बगड़िया, मीरा श्रीवास्तव, अनुपमा सिंह, राजकांता राज, सुनिता रंजन, पूनम कतरियार, कुमारी लता पराशर, डा प्रतिभा रानी, अमृता राय, पुनीता कुमारी श्रीवास्तव, ने भी अपनी रचनाओं से कवयित्री-सम्मेलन को यादगार बना दिया। मंच का संचालन कवयित्री सागरिका राय ने किया।
श्रोताओं में सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ, कुमार अनुपम, डा ओम् प्रकाश जमुआर, परवेज़ आलम, ई बाँके बिहारी साव, इंदु भूषण सहाय, प्रवीर कुमार पंकज, अरविंद कुमार श्रीवास्तव, पुरुषोत्तम कुमार, डा विजय कुमार, नन्दन कुमार मीत, समेत बड़ी संख्या में सुधी श्रोता और साहित्यकार उपस्थित थे।
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