भारत में माओ चौ की विचारधारा नहीं, श्रीकृष्ण की जीवनदृष्टि ही राष्ट्रकल्याण का मार्ग
— डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारत भूमि सदैव से अध्यात्म, धर्म, नीति और मानवता का पावन केन्द्र रही है। यहाँ का इतिहास केवल राजाओं और साम्राज्यों का नहीं, बल्कि ऋषियों, मुनियों, अवतारों और उनके शाश्वत संदेशों का इतिहास है। इस धरती ने हमेशा विश्व को “वसुधैव कुटुम्बकम्” का मंत्र दिया है। भारत की आत्मा का मूलभूत स्वर ही करुणा, सहअस्तित्व और न्याय पर आधारित है।
किन्तु आज विडंबना यह है कि कुछ लोग विदेशी विचारधाराओं का अंधानुकरण कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत की आत्मा कभी भी हिंसा, आतंक और विद्रोह से नहीं जुड़ी रही। माओ त्से तुंग की विचारधारा चीन की राजनीतिक परिस्थितियों में भले ही लागू हुई हो, परन्तु भारत जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्र के लिए यह केवल विनाशकारी है।
भारत के लिए आवश्यक है कि वह माओवाद जैसी विनाशकारी विदेशी विचारधाराओं से दूरी बनाए और श्रीकृष्ण के गीता-संदेश को जीवन का मार्गदर्शन बनाए। श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में भी धर्म, नीति और कर्म का अद्भुत संतुलन दिखाया। यही विचारधारा भारत के लिए जीवनदायिनी है।
माओ त्से तुंग (1893–1976) चीन के क्रांतिकारी नेता थे, जिन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा के बल पर सत्ता प्राप्त की। माओवाद का मुख्य आधार था — हिंसक क्रांति। माओ का मानना था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।
मूल तत्व: वर्ग-संघर्ष, सशस्त्र विद्रोह और केंद्रीकृत सत्ता।
लक्ष्य: शोषण और असमानता को खत्म करने के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना जिसमें व्यक्ति स्वतंत्र नहीं, बल्कि राज्य का दास हो।
इस का परिणाम हुआ कि चीन में लाखों निर्दोष लोगों की हत्या, अकाल, दमन और असंतोष बढ़ गया ।
भारत में यह विचारधारा 1960–70 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन के माध्यम से प्रवेश कर गई। पश्चिम बंगाल से शुरू होकर यह आंदोलन धीरे-धीरे झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्रप्रदेश तक फैल गया। माओवादियों ने ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में अपनी जड़ें जमाईं और वहाँ विकास के मार्ग में रोड़ा बन गए।
इसके कारण सैकड़ों निर्दोष ग्रामीण और सुरक्षाकर्मी मारे गए। स्कूल, सड़कें, पुल और विकास योजनाएँ नष्ट की गईं। युवा पीढ़ी को बंदूक उठाने पर मजबूर किया गया।
इस से भय और आतंक का वातावरण बना। माओवाद की विचारधारा केवल रक्तपात और विनाश की राह दिखाती है। इसका अंतिम परिणाम केवल अराजकता और अव्यवस्था है।
भारत की आत्मा माओवादी हिंसा को कभी स्वीकार नहीं कर सकती। यह राष्ट्र भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर और गांधी का राष्ट्र है। यहाँ का मूल दर्शन हमेशा से रहा है — अहिंसा परमो धर्मः और धर्मो रक्षति रक्षितः।
भारत की संस्कृति में:
धर्म का अर्थ है कर्तव्य और न्याय।
कर्म का अर्थ है निष्काम सेवा।
समाज का अर्थ है सहअस्तित्व।
माओवाद इसके ठीक विपरीत है।
यह धर्म और अध्यात्म को नकारता है।
यह हिंसा और विद्रोह को साधन बनाता है।
यह व्यक्ति को समुदाय और राज्य का मात्र उपकरण बना देता है।
नतीजा यह है कि जहाँ-जहाँ माओवादी प्रभाव फैला, वहाँ गरीबी और पिछड़ापन और गहरा गया। जो लोग विकास की मुख्यधारा में आ सकते थे, वे बंदूक और बम के रास्ते पर चल पड़े।
भारत की आत्मा करुणा और सहअस्तित्व में है, पर माओवादी विचारधारा नफरत और हिंसा को जन्म देती है। इसीलिए यह हमारे राष्ट्र के लिए पूर्णतः अस्वाभाविक और विनाशकारी है।
श्रीकृष्ण की जीवनदृष्टि: कर्म, धर्म और नीति का संतुलन
श्रीकृष्ण केवल एक पौराणिक पात्र या धार्मिक अवतार नहीं हैं; वे मानवता के लिए शाश्वत मार्गदर्शक हैं। महाभारत के युद्धक्षेत्र में दिया गया उनका गीता संदेश आज भी जीवन और समाज के लिए सर्वोत्तम मार्गदर्शन है।
निष्काम कर्मयोग
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
श्रीकृष्ण ने सिखाया कि प्रत्येक मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। यदि भारत का प्रत्येक नागरिक इस संदेश को अपनाए, तो भ्रष्टाचार, स्वार्थ और आलस्य मिट सकता है।
धर्मरक्षा का आदर्श
श्रीकृष्ण ने कहा — “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।”
धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए जब-जब आवश्यकता होती है, तब-तब संघर्ष करना ही पड़ता है। यह संघर्ष सत्ता के लिए नहीं, बल्कि न्याय और नीति की स्थापना के लिए है।
संवाद और समन्वय
महाभारत युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण ने शांति-वार्ता का हर प्रयास किया। केवल तब जब सभी प्रयास विफल हुए, उन्होंने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया। यह सिखाता है कि हिंसा अंतिम विकल्प है, साधन नहीं।
लोकसंग्रह और समग्र कल्याण
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा — “यद् यद् आचरति श्रेष्ठः तत् तदेवेतरो जनः।”
अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्ति जो आचरण करता है, समाज उसी का अनुसरण करता है। इसलिए नेतृत्व को लोकसंग्रह और लोककल्याण का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।
श्रीकृष्ण और माओ चौ: विचारों का तुलनात्मक अध्ययन
पक्ष माओ चौ की विचारधारा श्रीकृष्ण की जीवनदृष्टि
मूल आधार हिंसक क्रांति, रक्तपात धर्म, नीति और कर्मयोग
लक्ष्य सत्ता परिवर्तन धर्म और न्याय की स्थापना
मानव दृष्टि व्यक्ति राज्य का उपकरण व्यक्ति ईश्वर का अंश
साधन बंदूक और आतंक संवाद, नीति और धर्मयुक्त संघर्ष
परिणाम अराजकता, विनाश, दमन शांति, संतुलन, कल्याण
स्पष्ट है कि भारत जैसे राष्ट्र के लिए श्रीकृष्ण की जीवनदृष्टि ही उपयुक्त है।
विदेशी मानसिकता वाले नेताओं की भूमिका और खतरा
भारत में कुछ नेता और बुद्धिजीवी विदेशी विचारधाराओं को पोषित करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भारत की मिट्टी विदेशी दर्शन को कभी आत्मसात नहीं कर सकती।
कुछ नेता नक्सलवादियों का समर्थन करते हैं।
विदेशी फंडिंग से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलता है।
शिक्षा और मीडिया के माध्यम से युवाओं को गुमराह करने की कोशिश होती है।
ऐसे नेताओं और विचारकों पर केवल आलोचना नहीं, बल्कि कठोर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। राष्ट्रविरोधी मानसिकता को संरक्षण देना देशद्रोह से कम नहीं है।
श्रीकृष्ण की विचारधारा और आधुनिक भारत
आज भारत लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ रहा है। यह यात्रा तभी सफल होगी जब हम श्रीकृष्ण के आदर्शों को अपनाएँ।
राजनीति में धर्म और नीति: सत्ता का लक्ष्य केवल सेवा और लोककल्याण होना चाहिए।
समाज में एकता और सद्भाव: जाति, पंथ और भाषा के भेदभाव को समाप्त कर राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधना होगा।
युवाओं का मार्गदर्शन: शिक्षा प्रणाली में गीता का संदेश, नैतिकता और संस्कार का समावेश करना होगा।
भारत को विश्वगुरु बनाना: विज्ञान, तकनीक और आध्यात्मिकता का समन्वय कर भारत को पुनः विश्व में अग्रणी बनाना होगा।
भारत में माओ चौ की विचारधारा का कोई भविष्य नहीं है। यह विचारधारा केवल हिंसा, विनाश और अराजकता ला सकती है। इसके विपरीत भगवान श्रीकृष्ण की जीवनदृष्टि शांति, नीति, धर्म और समग्र कल्याण का मार्ग दिखाती है।
जो नेता भारत में रहकर विदेशी विचारधाराओं का समर्थन करते हैं, वे इस राष्ट्र के साथ विश्वासघात करते हैं। ऐसे लोगों पर कठोरतम दंड आवश्यक है, ताकि राष्ट्र की आत्मा सुरक्षित रह सके।
भारत को यदि पुनः विश्वगुरु बनना है तो हमें माओ चौ की हिंसक विचारधारा को नकारना होगा और श्रीकृष्ण की गीता को जीवन का संविधान बनाना होगा। यही भारत के उत्थान, प्रगति और मानवता के कल्याण का एकमात्र मार्ग है।
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