चाय बिस्कुट
जय प्रकाश कुंवर
रतनलाल की उम्र अब लगभग सत्तर साल की हो चुकी है। वे कलकत्ता में एक निजी कंपनी में काम करते थे। शहर में रहते हुए उन्हें ३०-४० वर्ष हो चुके थे। अब शरीर कमजोर हो जाने के चलते वे नौकरी छोड़ कर अपने गाँव आ गये थे। लंबी अवधि तक शहर में रहने के कारण गाँव देहात के बदले हुए आधुनिक रस्मों रिवाज से वाकिफ नहीं थे। उन्हें यह नहीं पता था कि गाँव देहात की मेहमान के लिए खातिरदारी भी अब गम्भीर नाश्ता और खाना से सिमट कर शहर की तरह अब चाय बिस्कुट पर आकर टिक गयी है। अपने जिन्दगी के शुरुआती दिनों में जब वे गाँव में रहते थे, तब गाँव के सामाजिक चलन के मुताबिक अपने रिश्तेदारों के यहाँ अक्सर आया जाया करते थे। चूंकि उन्हें साइकिल चलाना नहीं आता था, अतः वे पैदल ही अपने करीबी रिश्तेदारों के यहाँ जाते थे। पैदल चलकर उनके यहाँ जाने में कष्ट तो होता था, लेकिन उनसे मिलकर खुब आनंद आता था। वहाँ उनका खुब आवभगत एवं खिलान पिलान होता था। वहाँ पहुंचते ही पहले शर्वत पानी मिलता था उसके बाद भरपेट स्वादिष्ट नाश्ता तथा खाना मिलता था। तुरंत लौटने की जिद पर उन्हें जबरन रोक लिया जाता था और दो तीन दिन खुब खातिरदारी करने के बाद उन्हें वापसी के लिए छोड़ा जाता था। फिर वो रोजगार की तलाश में शहर चले गए और काफी समय तक शहर में रहे। शहर में जिन्दगी गुजारने के बाद जब वे पुनः गाँव लौट कर रहने के लिए आये तो उनके मन में रिश्तेदारों के यहाँ जाने की और आवभगत की वहीं पुरानी तस्वीर बैठी हुई थी। घर पर बैठे बैठे मन नहीं लगता था तो एक दिन वो अपने बहन के घर जो उनके गाँव से लगभग दश किलोमीटर दूर था, जाने का मन बनाये। उनके शहर निवास के दरमियान ही एक साल पहले उनकी बहन का अंतकाल हो गया था , लेकिन उनके बहनोई जिंदा थे, जो घर पर ही रहते थे। अपनी बहन के गुजरने के बाद रतनलाल जी उसके घर नहीं गयेे थे। इसलिए वहाँ जाना वे आवश्यक समझ रहे थे। इस समय तक गाँव देहात में भी कुछ आवागमन के साधन शुरू हो गये थे। गर्मी का दिन होने की वजह से वे अपने घर से सुबह में बिना कुछ खाये केवल चाय पीकर निकल पड़े। घर से दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद उन्हें बस की सवारी मिल गयी। बस से वे अपनी बहन के गाँव के नजदीक तक तो पहुँच गए, लेकिन उसके घर तक जाने के लिए एक किलोमीटर और पैदल चलना पड़ा। रतनलाल जी के पिता की जिंदगी में उनके बहन की शादी एक अच्छे धनवान घर में हुई थी। जब वे अपने बहन के घर पहुंचे तो उन्हें बहुत प्रेम से बैठाया गया। सोफे पर पंखे के नीचे बैठकर उन्हें रास्ते के थकान से कुछ राहत मिला। एक ग्लास ठंडा पानी पीकर और भी सुकून महसूस हुआ। लेकिन अब उन्हें भूख सता रही थी, क्योंकि वो अपने घर से बिना खाये हुए निकल पड़े थे। लगभग एक घंटे के बाद एक नौकर उनके सामने सेन्टर टेबल पर एक कप चाय और एक प्लेट में दो चार बिस्कुट रख गया। भूख के सताये रतनलाल जी जल्दी जल्दी बिस्कुट खा लिए और धीरे धीरे चाय पीने लगे। चाय बिस्कुट खाकर वे इत्मिनान से बैठकर आराम करने लगे और इंतजार करने लगे कि अब खाने का बुलावा आयेगा। इस बीच घर के एक दो बच्चे सामने आये और मुस्कुरा कर चले गए। उनके बहनोई उनके आने के बाद मिल कर किसी काम में व्यस्त हो गये थे। घंटों इंतजार करने के बाद भी खाने के लिए पुछने कोई नहीं आया। अब रतनलाल जी को भूख सहन नहीं हो रहा था। उन्होंने घर के एक बच्चे को नौकर के माध्यम से बुलाया और उससे अपने बहनोई से बोल देने को कहा कि मैं कुछ जल्दी में हूँ और अपने घर वापस जा रहा हूँ। खबर पाकर उनके बहनोई आये और फारमिलिटी पूरी करते हुए बोले कि खाना खाकर जाते तो अच्छा होता। खैर जल्दी है तो मैं रोकूंगा नहीं लेकिन फिर आइयेगा। उन्होंने हाथ जोड़कर अभिवादन और बिदा किया और मैं केवल उनके घर का चाय बिस्कुट खाकर भूखे पेट वापस अपने घर आ गया।
अब मुझे यह एहसास हुआ कि अब गाँव देहात में भी शहरी कल्चर फैल गया है। अब गाँव देहात में भी मेहमान की खातिरदारी खाना खिलाकर नहीं, बल्कि चाय बिस्कुट से ही की जा रही है, चाहे मेहमान कितने भी दूर से क्यों न आया हो।
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