हिंदी दिवस : एक विडंबना और राष्ट्रीय अस्मिता की पुकार
✍ डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारतवर्ष की आत्मा उसकी भाषा और संस्कृति में बसती है। हजारों वर्षों से यह देश अनेक भाषाओं, बोलियों, परम्पराओं और विचारधाराओं का संगम रहा है। किन्तु इन सबके बीच जो भाषा सबसे अधिक व्यापक, जन-जन की धड़कन और सांस्कृतिक धारा की वाहक बनी, वह है हिंदी। हिंदी न केवल उत्तरी भारत बल्कि पूरे देश की सहभाषा और आत्माभिव्यक्ति का माध्यम रही है। इसके बावजूद यह विडंबना ही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 78 वर्षों के बाद भी हिंदी को आज तक राष्ट्रीय भाषा का संवैधानिक दर्जा नहीं मिल पाया।
आज जब हम हिंदी दिवस मनाते हैं तो यह सवाल गूंजता है कि क्या यह उत्सव सच्चे मन से है या केवल एक औपचारिकता? क्या हिंदी दिवस केवल शुभकामनाएँ बाँटने और भाषण देने तक सीमित है? या यह हमारी सामूहिक विफलता का प्रतीक है कि अपनी ही मातृभाषा को हम उचित स्थान नहीं दिला सके?
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और हिंदी की जड़ें
भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि यहाँ सदियों से एक साझा संवाद की खोज होती रही है। संस्कृत से अपभ्रंश और प्राकृत होते हुए हिंदी का विकास हुआ। कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रहीम, रसखान, भारतेंदु, प्रसाद, प्रेमचंद, निराला और अज्ञेय तक—हिंदी का साहित्यिक संसार इतना विराट है कि यह किसी भी दृष्टि से राष्ट्रीय चेतना की भाषा कही जा सकती है।
महात्मा गांधी ने हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ कहकर संबोधित किया और कांग्रेस के अधिवेशनों से लेकर स्वतंत्रता संग्राम की गूंजती आवाज हिंदी ही बनी। भारत छोड़ो आंदोलन हो या नमक सत्याग्रह, गाँव-गाँव में जो भाषा जनता तक पहुँचती थी वह अंग्रेज़ी नहीं, हिंदी ही थी।
फिर प्रश्न उठता है—जब स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी ने देश को जोड़ा, तो स्वतंत्रता के बाद उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों नहीं मिला?
संवैधानिक व्यवस्था और आधा-अधूरा निर्णय
संविधान सभा में इस विषय पर लंबी बहसें हुईं। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा गया। परंतु दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया। परिणामतः संविधान निर्माताओं ने समझौता करते हुए हिंदी को केवल ‘राजभाषा’ का दर्जा दिया और साथ ही अंग्रेज़ी को भी अनुवाद की भाषा के रूप में अपनाया। अनुच्छेद 343 में यह व्यवस्था की गई कि 15 वर्षों के भीतर अंग्रेज़ी की जगह हिंदी पूरी तरह ले लेगी।
लेकिन हुआ इसका उलटा। 1965 में जब अंग्रेज़ी हटाने की बात आई तो कुछ राज्यों में भारी विरोध हुआ। सरकार पीछे हट गई और अंग्रेज़ी की समानान्तर स्थिति बनी रही। आज तक वही स्थिति कायम है।
78 वर्षों में हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी। यह केवल ‘राजभाषा’ कहलाती है और अंग्रेज़ी उसके साथ बराबरी से चल रही है। यह स्थिति अपने आप में हास्यास्पद और दुखद है।
हिंदी दिवस की विडंबना
हर वर्ष 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। बड़े-बड़े नेता, मंत्री, अफसर और संस्थान हिंदी के महत्व पर भाषण देते हैं। पुरस्कार बाँटे जाते हैं, निबंध प्रतियोगिताएँ होती हैं, हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है। लेकिन जैसे ही यह दिवस बीतता है, सब कुछ अंग्रेज़ी के शिकंजे में लौट आता है।
दफ्तरों की फाइलें अंग्रेज़ी में, संसद की बहसें अंग्रेज़ी में, अदालतों के निर्णय अंग्रेज़ी में, विश्वविद्यालयों की पढ़ाई अंग्रेज़ी में और नौकरी की परीक्षाएँ अंग्रेज़ी में—फिर हिंदी दिवस का क्या अर्थ? क्या यह केवल एक औपचारिक रस्म अदायगी है?
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस देश की 60% से अधिक जनता हिंदी बोलती और समझती है, उसी देश में हिंदी को हीन दृष्टि से देखा जाता है।
राजनीति और भाषा का खेल
भाषा केवल संवाद का साधन नहीं होती, यह सत्ता और राजनीति का भी माध्यम होती है। भारत की राजनीति में अंग्रेज़ी का प्रभाव इतना गहरा है कि नेता स्वयं तो हिंदी में भाषण देते हैं, लेकिन नीतियाँ, कानून और आदेश अंग्रेज़ी में जारी करते हैं।
हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनने देने के पीछे राजनीतिक स्वार्थ भी है। अंग्रेज़ी सत्ता वर्ग की सुविधा की भाषा है। यह एक प्रकार का वर्ग-विभाजन भी करती है। अंग्रेज़ी जानने वाले उच्च वर्ग में गिने जाते हैं और हिंदी बोलने वाला सामान्य नागरिक ‘पिछड़ा’ मान लिया जाता है।
शिक्षा और रोजगार में हिंदी की दुर्दशा
शिक्षा व्यवस्था में हिंदी की स्थिति सबसे अधिक दयनीय है। उच्च शिक्षा का अधिकांश साहित्य अंग्रेज़ी में उपलब्ध है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ, प्रबंधन, आईटी—हर क्षेत्र में अंग्रेज़ी हावी है। हिंदी माध्यम के छात्रों को नौकरी और प्रतियोगी परीक्षाओं में हीनता का अनुभव होता है।
रोजगार की दृष्टि से भी अंग्रेज़ी को अनिवार्य बना दिया गया है। UPSC जैसी परीक्षाओं में हिंदी का विकल्प तो है, परंतु अंग्रेज़ी में दक्ष न होने पर अभ्यर्थी पिछड़ जाते हैं। यही कारण है कि हिंदीभाषी राज्यों से भी विद्यार्थी अंग्रेज़ी माध्यम की ओर भागते हैं।
मीडिया और बाज़ार की भाषा
मीडिया, फिल्म, विज्ञापन और व्यापार में हिंदी का प्रभाव तो है, परंतु वहाँ भी अंग्रेज़ी की चमक-दमक हावी है। ‘हिंग्लिश’ संस्कृति ने शुद्ध हिंदी को पीछे धकेल दिया है। न्यूज़ चैनल से लेकर सोशल मीडिया तक, हिंदी का रूप विकृत और बाज़ारू हो गया है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
दुनिया की अधिकांश बड़ी भाषाएँ अपने देश में सर्वोच्च स्थान पर हैं। फ्रांस में फ्रेंच, जर्मनी में जर्मन, चीन में चीनी, रूस में रूसी और जापान में जापानी—इन देशों ने कभी अंग्रेज़ी को अपनी मातृभाषा पर हावी नहीं होने दिया।
भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो स्वतंत्रता के 78 साल बाद भी अंग्रेज़ी के मोहजाल से बाहर नहीं निकल पाया। जबकि हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
समाधान और आगे की राह
हिंदी को केवल दिवस और पखवाड़े तक सीमित न रखकर उसे राष्ट्रीय जीवन की धड़कन बनाना होगा।
संविधान संशोधन के माध्यम से हिंदी को स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देना होगा।
शिक्षा व्यवस्था में हिंदी माध्यम को प्रोत्साहित करना होगा और उच्च शिक्षा का साहित्य हिंदी में उपलब्ध कराना होगा।
सरकारी कार्यों, अदालतों और संसद में हिंदी को प्राथमिक भाषा बनाना होगा।
मीडिया और मनोरंजन जगत में शुद्ध, सशक्त और सम्मानजनक हिंदी का प्रयोग करना होगा।
युवाओं को यह बोध कराना होगा कि हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि हमारी अस्मिता और स्वाभिमान का प्रतीक है।
निष्कर्ष
आज हिंदी दिवस मनाते हुए हमें आत्ममंथन करना होगा कि आखिर हम कहाँ चूक गए। हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की आत्मा है। इसे केवल ‘राजभाषा’ तक सीमित रखना हमारी ऐतिहासिक भूल और राजनीतिक कमजोरी है।
अगर हम सचमुच हिंदी दिवस को सार्थक बनाना चाहते हैं तो हमें इसे भाषण और बधाई संदेशों से बाहर निकाल कर ठोस कार्यवाही करनी होगी। अन्यथा यह दिवस एक मजाक बनकर रह जाएगा और आने वाली पीढ़ियाँ हमें क्षमा नहीं करेंगी।
हिंदी दिवस केवल उत्सव नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा की मांग और सांस्कृतिक अस्मिता की पुकार है। हमें यह तय करना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को अंग्रेज़ियत के बोझ तले दबा हुआ भारत देंगे या हिंदीमय भारत—जहाँ आत्मगौरव, संस्कृति और भाषा का सम्मान सर्वोपरि होगा।
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