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"समर्पण से विस्तार, संग्रह से संकुचन"

"समर्पण से विस्तार, संग्रह से संकुचन"

प्रेम का परमानन्द दान की निष्काम प्रवृत्ति में प्रतिष्ठित है, जहाँ आत्मा अपनी निजता का विस्मरण कर अर्पण की अखण्ड धारा में अवगाहित हो जाती है। यह अर्पण किसी अपेक्षा का परिणाम नहीं, प्रत्युत आत्मस्फूर्ति का साक्षात् प्रवाह है। प्रेम का स्वभाव ही देने में है; वह जितना वितरित होता है, उतना ही समृद्ध होता है। त्याग एवं समर्पण उसकी शिराओं में प्रवहमान प्राणधारा के सदृश हैं, जो हृदय को आत्मविस्तार की अनुभूति कराते हैं। इस प्रकार प्रेम, व्यक्ति के अंतःकरण को सीमाओं से परे ले जाकर सार्वभौमिक चेतना से एकाकार कर देता है।

इसके प्रतिकूल, अहंकार का सुख केवल उपभोग एवं स्वार्थपरक संचयन में सीमित रहता है। उसका संतोष नितान्त क्षणभंगुर है, क्योंकि उसका मूलभूत स्वरूप ही असंतोष की भूमि पर निर्मित है। जितना वह ग्रहण करता है, उतनी ही उसकी रिक्तता गहन होती जाती है। अहंकार का पथ व्यक्ति को संकुचित, आत्मकेन्द्रित एवं विषादपूर्ण बना देता है। अतः मानव-जीवन का यथार्थ मूल्य इस तथ्य में निहित है कि वह प्रेम की निष्काम दानवृत्ति को अंगीकार करे, जिससे न केवल व्यक्तिगत आत्मा अलौकिक शांति का रसास्वादन करे, बल्कि समग्र समाज भी सहृदयता, मैत्री एवं सौहार्द के आलोक से आलोकित हो उठे।

. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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