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संगठनकर्ता का अहंकार

संगठनकर्ता का अहंकार

(सामाजिक,भावनात्मक आत्ममंथन)
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✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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लोग भांजते हैं शब्दों की तलवार,
पर रण में जाने से करते हैं इनकार।
हर पोस्ट,हर भाषण में गरजते हैं,
वक्त आने पर, चुपचाप सरकते हैं।

चेहरे पर रौशनी खुद हीं लाते हैं,
आईने को तोड़कर मुस्कुराते हैं।
सच क्या है, इसका न कोई वास्ता,
बस शब्दों से बुनते झूठ का रास्ता।

वकीलों की फौज साथ खड़ी है,
पर इसकी जरूरत कभी ना पड़ी है।
न्याय की बातें, होती मंचों की शान,
पर न्यायालय से खुद होते अनजान।

अकेला समाज का ठेकेदार बनते हैं,
खुद लेते निर्णय, लोगों पर तनते हैं।
जो ना बोले, वो होता दुश्मन करार,
अपना मत ही बताए सबका विचार।

न मदद किसी की, न साथ किसी का,
फिर भी चाह, मिले सम्मान सभी का।
स्वार्थ की बड़ी गठरी है कंधे पर भारी,
कहते, हम हीं बदलेंगे दुनिया सारी।”

मैं भी चालीस वर्षों तक लोगों को देखा,
निकट रहकर सभी को बखूबी परखा।
आखिर कब तक ऐसा होगा समाज में,
भाइयों! बुलंदी लाओ अपनी आवाज में।

अब बहुत हुआ, उठो, जागो साथियों,
सच और झूठ का फर्क जानो साथियों।
न बनो मोहरे स्वार्थी लोगों की चाल का,
देंगे नहीं जवाब, कभी आपके सवाल का।

अपने समाज की, ताकत को पहचानो,
हर झूठे नायक की इतिहास को जानो।
जुट जाओ और खुद को प्रमाणित करो,
सशक्त होकर, समाज को गौरवान्वित करो।

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