आज के परिवेश को समझे
आधुनिकता की चकाचौन्ध को देखकर हर कोई वहकता है पर उसके स्वरूप को नही पकड़ पाता है। समय ने तो कितना कुछ लोगों को बदल दिया है पर खुदकी पढ़ाई लिखाई और अपनी शिक्षा के मानदण्ड के साथ अपनी सोच को नही बदल सके है। आधुनिकता के लिबाज को तो धारण करते है पर समय की पुकार को नही समझते है। बस ऊपर की परत को ही देखते है और उसी में खोज जाते है। बदलाव जरूर करते है पर किस बात का जैसे मैं, मेरी पत्नी, और बच्चा तक ही दुनिया है इसके अलावा कुछ नही है, ज्यादा हुआ तो पत्नी के माँ बाप और बहिन.. पर, खुदके माँ बाप के लिए इसमें जगह नही है। परिवार की परिभाषा ही बदल दी और आज के युग में नई परिभाषा हिट हो गई। पर बेटे होने का फल माँ बाप से पूरा चाहिए पर माँ बाप के प्रति बेटा बेटी की कोई जिम्मेदारी नही है।
हाँ उनकी संपत्ति में हिस्सा पूरा चाहिए भले ही उस संपत्ति को बनाने में शून्य योगदान है पर लेने में अधिकार तो पूरा पूरा है। वैसे भी आज कल देखने मे बहुत आ रहा है की यदि आप मेट्रो सिटी में या विदेश में नौकरी कर रहे हो जहाँ की जिंदगी भागम भाग और अत्याधिक खर्च वाली है इसलिए दोनों को काम करना पड़ता है जब तक ये अकेले रहते है तब तक तो अपने आप को महाराजा से कम नही समझते है परंतु जैसे ही इनकी संतान हुई बस श्रीमती जी का दिमाग तेजी से दौड़ने और चलने लगता है की अब बच्चे की देख रेख कौन करेगा और घर के काम धाम कौन करेगा... आदि । तब इनका प्रेम दादा दादी के प्रति बहुत ज्यादा उमड़ने लगता है और एक दम से माँ बाप की याद
आने लगती है क्योंकि मेम साहब को एक चौबीस घंटे का नौकर चाहिए तो...।
शादी के दो या तीन साल बाद बहुत ज्यादा आने लगती है और मानो इतना प्यार उमड़ता है की हम व्या नही कर सकते।
अपनी आजादी और आधुनिकता में रहने के लिए एक आया की और काम वाली की जरूरत आन पड़ी। तो लड़के के माँ बाप से बेहतर कौन हो सकता है। दादा दादी भी पोते की खातिर सब समझते हुए भी बेटे बहु के पास आ जाते है क्योंकि मूलधन से ज्यादा ब्याज ज्यादा प्यारा होता है। परंतु प्रेम प्रीत भी बस तीन साल तक ही इस कलयुग में चलता है उससे ज्यादा नही। जैसे ही बच्चा स्कूल जाने लगता है। स्नेह प्रेम भाव घटने लगता है और फिर माँ बाप या तो वापिस गाँव या फिर बृध्दाश्रम में भेज दिये जाते है, क्योंकि अब इनकी जरूरत नही है। परंतु ये भूल जाते है की दादा दादी का पोते पोती से लागाव होने के कारण बच्चे का झूकाव भी दादा दादी के प्रति गैहरा बन जाता है जो ता उम्र मिटता नही है। क्योंकि बच्चे के दिल बहुत ही कोमल होते है और उसमें दादा दादी बैठे जाते है। वैसे बच्चे को मेट्रो और विदेश में अतिव्यस्यता होने के कारण बच्चे से मिलना जुलना रविवार या छुट्टी के दिन ही अच्छे से होता है। पर वो भी अपने अपने काम में व्यस्यत होते है तो ममता वाला लगाव कम होता है क्योंकि माँ बाप कलयुगी है। ये हमारा आधुनिकता वाला समाज है जहाँ परिवार और रिश्तेदारों से मिलने के लिए समय ही नही है। बस पैसे से ही ज्यादा मतलब है। स्नेह प्यार मिलना जुलना आदि तो न के बराबर इस कलयुग में है। बस सब कुछ दिखावे के लिए ही बचा है। हर चीज एक इवेंट की तरह चलता है। माँ बाप अपनी संतान को काबिल बनाते है सुखी जीवन जीने के लिए परंतु ज्यादा काबिल बन जाने के कारण सब को भूल जाते है। यही आज कल की सच्चाई और हकीकत है। हम समाज के हर वर्ग से अनुरोध करते है की अपने बच्चो को उच्च शिक्षा के साथ अच्छे और सच्चे संस्कार अवश्य ही दे, वरना हम सब अजनबी की तरह इस संसार में जी कर चले जायेंगे। समझना और विचार अब हमें और आपको ही करना है। मेरा लेख देश समाज और समस्त परिवारों के नाम समर्पित है।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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