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“समय की कील पर”

“समय की कील पर”

समय की कठोर दीवार पर
हम बहानों की पोटली टाँकते रहे—
मानो कील पर टंगे चिथड़े हों
जो हर आंधी में
झंडों-से फड़फड़ाते हैं।


प्राथमिकताएँ—
विचारों की भीड़ में
धक्के खातीं,
किसी कतार के अंतिम छोर पर
अपमानित-सी खड़ी रहती हैं।
उनके आगे
हमने तुच्छताओं को प्रवेश-द्वार दिया,
और सार्थकता को
पीछे धकेल दिया।


समय की कमी—
हमारा सुविधाजनक बहाना है,
जिससे हम छिपाते रहे
अपनी ही अकर्मण्यता।
आधुनिकता की होड़ में
हमने सत्ता का आवरण पहना,
पर भीतर की शून्यता
हर दिन और उघड़ती गई।


व्यस्तता—
केवल प्रपंच है;
हम दिन-प्रतिदिन
स्वयं को छलते हैं,
मानो दर्पण में प्रतिबिंब देखकर भी
उसकी आँखों में झाँकने से डरते हों।


और अंततः—
वह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है:
क्या समय सचमुच कम है,
या हम ही अपने जीवन को
विकल्पों की जाल में उलझाकर
उस अमूल्य क्षण को
रेत की तरह
हथेली से फिसलाते रहे?


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️

(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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