जरा चैन से मरने दो मेरे लाल !
कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"हमारे वैदिक-पौराणिक शास्त्रों ने एक ओर सुखमय जीवन-यापन की कला सिखलायी है, विधि बतलाया है, तो दूसरी ओर आसन्न मृत्यु-काल के अपरिहार्य कृत्य भी सुझाए हैं। इतना ही नहीं, जीवन के बाद के यानी मृत्योपरान्त के अत्यावश्यक कृत्यों पर भी विशद प्रकाश डाला है। किन्तु खेद और चिन्ता की बात है कि स्वयं को शिक्षित, ज्ञानवान, समृद्ध माने बैठे आधुनिक विचारवान इन तीनों सत्शास्त्र निर्देशों से बिलकुल ही अनजान हैं। और अनजान इसलिए नहीं हैं कि इन्हें भान नहीं है, प्रत्युत जानबूझकर मुँह मोड़े हुए हैं इस सद्विज्ञान से। इसे समझने, जानने, मानने को उत्सुक नहीं हैं, राज़ी नहीं है। क्यों कि ठीक से मान लेने पर आधुनिकता में कहीं बट्टा न लग जाए—भय समाया हुआ है।
कैसी विडम्बनापूर्ण-चिन्ताजनक स्थिति है आज की—प्राकृतिक नियमों को तिलाँजलि देकर, जीवन के मध्य पड़ाव पर ऐन-केन-प्रकारेण वैवाहिक बन्धन में बँध जाना या आँख मूँदकर गिर पड़ना, ऐन्द्रिक सुख-भोग-बाधा से बँचने के लिए सृष्टि-संरचना में कृत्रिम अवरोध पैदा करना, आधुनिक संसाधनों की चूक से सन्तान उत्पन्न हो जाये यदि, तो मातृत्वविहीन भाव से पालन-पोषण कर लेना, अपने सुख-चैन के खातिर, आधुनिक शिक्षा के नाम पर बच्चों को होस्टलाइज कर देना।
और इससे आगे?
तथाकथित शिक्षित (आन्तरिक रूप से सर्वथा अशिक्षित) युवा के निजी संघर्ष और उसका परिणाम—दौलत बटोरने की मशीन बनने से ज्यादा और कुछ नहीं। धन-संचय में इतनी व्यस्तता कि धन-सुख-भोग का भी अवसर नहीं मिलता। भागदौड़ की दुर्व्यवस्थित जीवनशैली के परिणामस्वरूप असामयिक आधि-व्याधि ग्रस्त शरीर, असामयिक बुढ़ापा...।
और इसके बाद ?
वराहिल, नौकर या कि कुत्ते से भी बदतर स्थिति में घर के किसी कोने में या दरवाजे पर दिन काटना या किसी वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ाना ।
और फिर?
नगरनिगम के शववाहन से विद्युत शवदाहगृह में बहुमूल्य मानव शरीर की अन्तिम विदाई...यही तो रही जीवन भर की कमाई । जिनके लिए कमाया, जिसके लिए कमाया, जिसके लिए जीवन गँवाया—उन्हें ऐन वक्त पर ‘फ्लाइट’ भी नहीं मिलता कंधा देने को...।
खैर, आधुनिकता का भूत चढ़ ही गया है, तो इतनी आसानी से उतरने वाला तो है नहीं । व्यासोष्छ्रिष्टं जगत् सर्वं...ऋषि-महर्षियों ने जितना ज्ञान दे दिया, जितनी बातें कह दी, उससे बाहर, उससे अधिक भला कोई कह ही क्या सकता है। फिर भी वर्तमान विसंगतियों को देखते हुए कुछ कहने की ललक होती है। इस आशा के साथ कि शायद कुछ असर हो जाए—पुरानी बातों को नए अन्दाज में कहने से।
असामयिक दुर्घटना—चोट-चपेट की बात बिलकुल अलग है। जटिल बीमारियों के समुचित इलाज की बात अलग है। किन्तु लाइलाज बीमारी और दस्तक देता बुढ़ापा, बुढ़ापे का एकाकीपन—ये सब तो बिलकुल अलग किस्म की बात है न !
सबको एक ही खाँचे में कैसे रख सकते हैं !
सामान्य रूप से, आसन्न मृत्यु का अनुभव और अन्दाज पहले प्रायः आम आदमियों को भी हुआ करता था। मृत्यु-सूचक अनेक संकेतों का ज्ञान रहता था देहाती-अनपढ़-गंवार को भी। वृद्ध व्यक्ति स्वयं भी अपना परीक्षण किया करता था— ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की विविध संकेतों और भंगिमाओं से। वैद्य बुलाने की आवश्यकता भी शायद ही होती थी।
किन्तु अब?
देहाती-अनपढ़-गंवार का अनुभव मान्य नहीं। कन्वेन्टी प्रोडक्टों के ब्रेन में तो ये वाला चेम्बर ही नहीं है, क्योंकि उनकी परवरिश और शिक्षा ही सिर्फ ठगने और ठगाने के लिए हुई है। प्रायः वे पैसा कमाने की मशीन भर हैं। इससे बाहर वे सोच भी नहीं पाते...सोच भी नहीं सकते।
एक ओर नाड़ीविज्ञानवेत्ताओं का सर्वथा अभाव हो गया है और दूसरी ओर आधुनिक डॉक्टर मशीनों पर निर्भर हो गए हैं। उन्हें अपने अनुभव और ज्ञान पर भरोसा नहीं रह गया है। और कड़वा सच ये है कि मशीनें प्रायः अनाड़ियों के हाथ में हैं। एक्सपर्ट सिर्फ रिपोर्ट-साइन करने के लिए बहाल होते हैं। डिग्रियाँ लादे डॉक्टर सा’ब के पास आसन्न मृत्यु का ठोस अनुभव नहीं होता और थोड़ा-बहुत होता भी है तो मशीनी आदतों ने खुद पर भरोसा करना भुला दिया है। अपने अनुभव का विश्वास के साथ प्रयोग नहीं करते या करना नहीं चाहते , क्योंकि चिकित्सा कर्म नहीं, धर्म नहीं, प्रत्युत व्यवसाय बन चुका है अब।
हमारे सोढ़नदासजी का विचार इस बावत बड़ा ही स्पष्ट और कठोर है। और इसका कारण है कि यमदूत के बड़े भाई-- व्यवसायी नर्सिंगहोमों का बड़ा ही कड़वा अनुभव है उनके पास। कोरोना काल का रोमांचक दृश्य बहुतों को स्मरण होगा। मुख्य बाजार से लेकर, एन.एच. तक कुकुरमुत्तों की तरह पसरे आलीशान नर्सिंगहोमों की चाँदी ही चाँदी थी—टैक्सी-टेम्पों वालों से भी कन्टैक्ट था—एक मरीज पटको...पन्द्रह-बीसहजार बख्शीस लेकर जाओ। मजेदार बात ये है कि बड़े-बड़े अस्पतालों में बड़ी-बड़ी मशीनें—आई.सी.यू., इन्क्यूवेटर और वेन्टीलेटर लगाये ही इसलिए जाते हैं कि रोगी के अभिभावकों की भावनाओं को भलीभाँति भुनाया जा सके। मुर्दे की नाक पर भी महीनों मॉस्क लगाये वेन्टीलेटर का बिल बनते रहता है। शायद ही कोई ईमानदार नर्सिंगहोम मिले, जो कह सके कि ले जाइये घर और सेवा कीजिए जबतक हो सके...।
दरअसल सेवा के लिए हमारे पास समय नहीं हैं, क्यों कि हम भोग और धनार्जन की गुलामी में हैं। सेवा करने से हम कतराने भी लगे हैं। ‘डायपर’ सभ्यता की माँ ने ही जब कायदे से मल-मूत्र साफ नहीं किया, तो फिर बूढ़े-बीमार माँ-बाप के मल-मूत्र भला कौन साफ करने की जहमत मोले !
दरअसल स्नेह और आत्मीयता का क्षरण हो गया है। औकात के हिसाब से अस्पतालों का चक्कर इसलिए लगाते हैं कि लोग देखें और कहें—बहुत सेवा किया...।
जीवित माँ-बाप को कभी एक गिलास पानी तक नहीं देने वाला कपूत भी सपूत कहलाने की ललक में श्राद्ध-भोजन में हजारों को नेवतता है, ताकि लोग देखें और चर्चा करें मातृ-पितृभक्ति की।
दाने-दाने के मुँहताज, गेंदड़ा पर गुजारा करने वाले माँ-वाप के श्राद्ध में भी ‘मन्त्रहीनं क्रियाहीनं’ तोषक-तकिया दान होते हुए आपने भी देखा होगा।
किन्तु कौन समझाये इन्हें?
श्राद्ध कोई समारोह नहीं है। उत्सव नहीं है। सैकड़ों-हजारों परिचितों को खिलाने का कोई तुक नहीं है। लाखों लुटाने का भी कोई तुक नहीं है। मात्र तीन योग्य ब्राह्मण और तीन भिक्षुक भोजन ही पर्याप्त है। वस्तुतः श्राद्ध हमारी सनातन परम्परा की उर्ध्वदैहिक तकनीक है। और ध्यान रहे—तकनीक तो तकनीक ही होता है न !
श्राद्ध सिर्फ भावप्रधान पूजा नहीं है। श्राद्धकर्म में वाक्शुद्धि, क्रियाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि— इन सबका समग्र रूप से ध्यान रखना अति आवश्यक होता है। आधुनिक शैली में समझो तो कहें कि ई.मेल का एक डॉट या अन्डरस्कोर भी छूट जायेगा तो मेल इनवैलिड हो जायेगा।
इन सब हालातों को देखते-समझते हुए, सोढ़नदासजी ने अपने परिवारजनों को स्पष्ट हिदायत दे रखी है। आसन्न मृत्यु सूचक लक्षणों को विधिवत समझा रखा है। उनका कहना है कि रोग-बीमारी का इलाज है, मृत्यु तो लाइलाज है। और हाँ—क्षणभर पहले या कि क्षणभर बाद ये कदापि घटित नहीं हो सकता। यानी समय सुनिश्चित है, भले ही अज्ञात हो। अतः ‘जब तक सांस, तब तक आश’ वाली बेतुकी कहावत पर लुटो नहीं, लुटाओ नहीं। परेशान बिलकुल न होओ। मृत्यु संनिकट जान पड़े तो जितना बन सके सेवा करो...हरि स्मरण करो...तुलसी-गंगाजल पिलाओ...औषधि जान्हवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ... यमयातना को चैन से हरिस्मरणपूर्वक सहने दो...रौरव और वैतरणी तो तुमने देखा नहीं, नर्सिंगहोम के नरक से तो बचने दो...नर्सिंगहोम के यमदूतों का दर्शन मत कराओ मेरे लाल ! ...घर के विस्तर पर चैन से मरने दो... चैन से मरने दो मेरे लाल ! चैन से मरने दो । अस्तु।।
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