भाई - बहनों के पावन प्रेम व अपार स्नेह का पवित्र संगम है रक्षाबंधन
संवाददाता : सुरेन्द्र कुमार रंजनरक्षाबंधन भाई-बहन के पावन प्रेम एवं अपार स्नेह का पवित्र संगम है। यह भारतीय संस्कृति एवं परम्परा की वह अनमोल निधि है जिसने श्रद्धा और प्रेम के माध्यम से संपूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है एवं भारतीय अस्मिता को गौरवान्वित किया है।
रक्षाबंधन भाई और बहन को स्नेह के सूत्र में पिरोने वाला एक महान पर्व है। यह पर्व प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।इस पर्व में बहन भाई को रक्षा रूपी बंधन अर्थात् राखी बाँधती है और भाई अपनी बहन को सलामती का वचन देता है। ब्राह्मण वर्ग भी अपने यजमान को राखी का पीला धागा बाँधते हैं और उनसे दक्षिणा ग्रहण करते हैं। यह पर्व विशेष कर उत्तर भारत में बड़े ही उल्लास और खुशी के साथ मनाया जाता है। महाराष्ट्र में तो यह पर्व सप्ताह भर मनाया जाता है।
रक्षाबंधन के पौराणिक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व ने इस पर्व की गरिमा को और अधिक बढ़ा दिया है। रक्षाबंधन पर्व को मनाने का प्रचलन कैसे हुआ और यह इतना लोकप्रिय क्यों हुआ, इसका ज्ञान शायद आधुनिक लोगों को नहीं है तभी तो आज यह बंधन एक रिवाज बनकर रह गया है। आज इसके मूल तथ्य की पहचान लुप्त सी हो गई है। रक्षाबंधन का पर्व की गरिमा को पुनः स्थापित करने के लिए इसके पौराणिक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालना आवश्यक है।
रक्षाबंधन पर्व की मान्यता पौराणिक काल से है। इस संदर्भ में कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। पुराणों में वर्णित कथानुसार एक बार श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लगने के कारणअधिक रक्त बहने पर द्रौपदी ने अपनी साड़ी के आँचल का छोर फाड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में पट्टी बाँध दी, जिससे उनके हाथ का रक्त बहना बन्द हो गया। इस बंधन के लिए श्रीकृष्ण ने अपने को बहन द्रौपदी का कर्जदार माना। जब दुर्योधन की सभा में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था, तब श्रीकृष्ण ने वस्त्रों का ढेर लगाकर अपनी बहन द्रौपदी की लाज बचाकर अपनी जिम्मेवारी निभाई थी।
एक अन्य कथानुसार - श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा जब साथ- साथ रहते थे, तो उन दिनों असुरों का अत्याचार बढ़ गये थे । उनके अत्याचारों से लोग त्रस्त थे। लोगों को इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ युद्ध करने के लिए तत्पर हुए। सुभद्रा दोनों भाइयों की रक्षा और मंगलकामना के लिए गौरा-पार्वती के मंदिर में आराधना की। प्रसन्न होकर गौरा जी ने अपना मंगलसूत्र प्रसाद स्वरूप सुभद्रा को भेंट किया। सुभद्रा ने इस मंगलसूत्र के रेशमी धागों को श्रीकृष्ण और बलराम की कलाइयों पर बाँध दिया। जिसके प्रभाव से श्रीकृष्ण और बलराम ने असुरों को परास्त कर दिया था। तब सुभद्रा ने प्रसन्न होकर भाइयों के स्वागत में कढ़ी-चावल, खीर तथा कई अन्य स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर भाइयों को खिलाया था। ऐसी धारणा है कि उसी समय से धागों का त्यौहार राखी मनाया जाता है।
रक्षाबंधन के संबंध में श्रीमद्भागवत में भी एक कथा प्रचलित है। उस कथानुसार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा-' हे भगवन ! मुझे रक्षा बंधन की वह कथा सुनाइए जिससे मुनियों को प्रेत - बाधा और कष्टों से घुटकारा मिलता है।
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया - 'हे पांडव श्रेष्ठ युधिष्ठिर! प्राचीन काल में देवासुर संग्राम बारह वर्षों तक चला तथा इस युद्ध में देवताकों की पराजय निश्चित हो गई थी। तब इन्द्र ने गुरु बृहस्पति से कहा कि है आचार्य ! शत्रुओं से घिरा हुआ अब मैंमरते दम तक युद्ध करना चाहता हूं।
वृहस्पति को कुछ कहने से पूर्व ही इन्द्राणी ने कहा कि - मैं एक ऐसा उपाय बताती हूँ जिससे हमारी विजय निश्चित होगी और असुरों की पराजय होगी।
दूसरे दिन श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा थी। उस दिन इन्द्राणी ने ब्राह्मणों से स्वस्ति वाचन कराकर देवराज इन्द्र के दायें हाथ में रक्षा का धागा बांधा। इसके बाद देवराज ने असुरों से युद्ध किया और असुर परास्त होकर पलायन कर गए। धारणा यह है कि तभी से रक्षा बन्धन का त्योहार मनाया जाने लगा ।
सिर्फ पौराणिक कथाओं से ही रक्षाबंधन के महत्त्व का पता नहीं चलता वरन् ऐतिहासिक कथाओं में भी इसकी महत्ता की गाथा प्रचलित है। रक्षा बंधन के संबंध में इतिहास में घटित ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो रक्षाबंधन की पवित्र भावना और हिन्दू-मुस्लिम एकता के सूत्र को मजबूत करती है :-
चित्तौड़ की रानी कर्मावती ने गुजरात के बादशाह बहादुरशाह से अपनी रक्षा के लिए दिल्ली के सम्राट हुमायूं के पास राखी भेजी थी। हुमायूं ने तब अपनी हिन्दू बहन की रक्षा कर राखी के पवित्र धागों की लाज रखी थी और हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूती प्रदान की थी।
इसी प्रकार सिकन्दर और पोरस के युद्ध के समय की भी एक महान घटना है जो रक्षाबंधन के महत्त्व पर प्रकाश डालती है। जब सिकन्दर भारत से युद्ध करने के लिए आया तो प्रेमिका को भी अपने साथ लाया था। जब सिकन्दर पोरस की वीरता के सामने टिक न सका, तब सिकन्दर की प्रेमिका, जिसने भारतीय संस्कारों के बारे में बहुत कुछ सुना था, से प्रेरित होकर पोरस के पास एक रेशम का धागा लेकर गई और प्रार्थनाकी कि वह उसे अपनी बहन स्वीकार करे। पोरस ने तब सिकन्दर की प्रेमिका को अपनी बहन स्वीकार कर ली थी। तब उसने पोरस की कलाई पर रेशम धागे को बाँध सिकन्दर के प्राणों की भीख माँगी। पोरस ने उसे आश्वासन दिया और सिकन्दर को नहीं मारा।
इसी प्रकार रक्षा बंधन से संबंधित कई पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएँ है जो रक्षाबंधन के महत्त्व को दर्शाती है। ये कथाएँ भाई-बहन के अटूट एवं पावन प्रेम को दर्शाता है। इस पर्व में धार्मिक अनुष्ठान की भी महत्ता है। श्रावणी पर्व रक्षाबंधन के पावन अवसर पर ऋषि-महर्षि उपाकर्म कराकर विद्यार्थियों को विद्याध्ययन कराना आरंभ करते हैं। दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र मिलाकर पंचगव्य बनाकर उसका हवन करते हैं और उसका पान करते हैं। इस क्रिया की उपाकर्म कहते हैं। उपाकर्म संस्कार कराकर जब व्यक्ति अपने घर लौटते हैं तो बहनें उनके दायें हाथ में राखी बांधकर उनका स्वागत करती है। इस विधि से भी रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।
आधुनिक परिवेश में जिस प्रकार लोगों के रहन-सहन और खान-पान में बदलाव आया है ठीक उसी प्रकार पर्व-त्योहारों को मनाने में भी बदलाव आया है। आधुनिकता के प्रभाव से पर्वों के मनाने के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। रक्षाबंधन पर्व को ही ले लिया जाय। पहले यह पर्व भाई-बहन के पावन प्रेम और निःस्वार्थ स्नेह का परिचायक था। पहले बहन अपने भाई को हर मुसीबत से रक्षा के लिए उसकी कलाई पर रेशम का धागा बांधती थी और भाई उसकी रक्षा का जिम्मा लेता था। मगर आज स्वार्थनिहित हो गया है।
की कि वह उसे अपनी बहन स्वीकार करे। पोरस ने तब सिकन्दर की प्रेमिका को अपनी बहन स्वीकार कर ली थी। तब उसने पोरस की कलाई पर रेशम धागे को बाँध सिकन्दर के प्राणों की भीख माँगी। पोरस ने उसे आश्वासन दिया और सिकन्दर को नहीं मारा।
इसी प्रकार रक्षा बंधन से संबंधित कई पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएँ है जो रक्षाबंधन के महत्त्व को दर्शाती है। ये कथाएँ भाई-बहन के अटूट एवं पावन प्रेम को दर्शाता है। इस पर्व में धार्मिक अनुष्ठान की भी महत्ता है। श्रावणी पर्व रक्षाबंधन के पावन अवसर पर ऋषि-महर्षि उपाकर्म कराकर विद्यार्थियों को विद्याध्ययन कराना आरंभ करते हैं। दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र मिलाकर पंचगव्य बनाकर उसका हवन करते हैं और उसका पान करते हैं। इस क्रिया की उपाकर्म कहते हैं। उपाकर्म संस्कार कराकर जब व्यक्ति अपने घर लौटते हैं तो बहनें उनके दायें हाथ में राखी बांधकर उनका स्वागत करती है। इस विधि से भी रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।
आधुनिक परिवेश में जिस प्रकार लोगों के रहन-सहन और खान-पान में बदलाव आया है ठीक उसी प्रकार पर्व-त्योहारों को मनाने में भी बदलाव आया है। आधुनिकता के प्रभाव से पर्वों के मनाने के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। रक्षाबंधन पर्व को ही ले लिया जाय। पहले यह पर्व भाई-बहन के पावन प्रेम और निःस्वार्थ स्नेह का परिचायक था। पहले बहन अपने भाई को हर मुसीबत से रक्षा के लिए उसकी कलाई पर रेशम का धागा बांधती थी और भाई उसकी रक्षा का जिम्मा लेता था। मगर आज स्वार्थनिहित हो गया है।
आज बहन भाई को इसी उम्मीद में राखी बांधती है कि उसे इसके बदले में कोई कीमती उपहार मिलेगा। कुछ बहनें तो खुलकर अपनी माँग भाइयों के समक्ष रख देती हैं और भाई अपनी लाप बचाने की खातिर कर्ज लेकर भी उनकी मांग को पूरी करता है। कहने का तात्पर्य यह कि आज यह पर्व सौदा बनकर रह गया है। आज वह प्रेम और स्नेह कहाँ दिखता है? आज पर्वों का भी व्यवसायीकरण हो गया है। आज भावनाओं की कोई कद्र नहीं। कई अमीर बहनें तो अपने गरीब भाइयों को राखी बाँधने में भी शर्मिंदगी महसूस करती है। वह गैर अमीर भाइयों को राखी बाँधना अपना शान समझती है क्योंकि उनसे उन्हें कीमती तोहफों की प्राप्ति होगी।
आधुनिक काल में राखियों का भी स्वरूप बदला है। रेशम के पतले धागों ने कई दिग्गज राजनेताओं, इलेक्ट्रानिक्स सामानों, प्राकृतिक उपादानों आदि का स्वरूप ग्रहण कर एक नये व्यवसाय को जन्म दे दिया है जिससे कई लोगों के रोजी-रोटी का जुगाड़ हुआ है।
कुछ भी हो रक्षाबंधन भाई-बहनों के अटूट स्नेह व पावन प्रेम का परिचायक है। हमें पौराणिक और ऐतिहासिक गाथाओं में संचित इसकी महत्ता को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना चाहिए। हमें निःस्वार्थ भाव से ही हर्षोल्लास के साथ इस पर्व को मनाना चाहिए। हमें इसकी गरिमा को बरकरार रखना चाहिए।
" बहना ने भाई की कलाई से प्यार बाँधा है, प्यार के दो तार से संसार बाँधा है।॥"
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