"तुमुल के पार"
क्या गाऊँ अब—प्रभाती प्रयाण-स्तुति का आलोक-वन्दन,
या प्रणय-माधुरी की रसमय गुंजार?
शायद गान स्वयं ही विलीन हो
मौन के अगाध सागर में,
जहाँ प्रत्येक तरंग
अकथनीय अर्थ का उद्घोष है।
यह तुमुल—
निरर्थक कोलाहल नहीं,
अपितु अदृश्य मन्त्र-नाद है,
जो मौन के गर्भ को भी
अनुनादित कर देता है।
मौन यहाँ जड़ नहीं,
वह तो चेतना की गहनतम लय है,
जहाँ ध्वनि और निःशब्दता
एक-दूसरे के प्रतिरूप बन जाते हैं।
मृत्यु?
वह केवल निस्तब्ध छाया है—
गति-विरुद्ध, जीवन-विरुद्ध।
किन्तु जीवन—
अविराम प्रवहमान धारा है,
जिसकी जड़ आत्मा के
अनादि रहस्यों में है।
गति ही सत्य है,
गति ही आत्मा का धर्म,
गति ही वह सेतु
जो क्षणभंगुरता से उठाकर
अनन्त की अर्चना में विलीन कर देता है।
और तब प्रतीति होती है—
गीत, मौन, मृत्यु, जीवन—
सब किसी परम गूढ़
अस्तित्व-रस के भिन्न भिन्न आयाम हैं।
जो साधक इन्हें आत्मसात कर ले,
वह जान लेता है—
गति ही परमेश्वर का श्वास है,
और मौन, उसकी अनन्त वाणी।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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