श्रेष्ठ कौन - जन्मदाता या कर्मदाता "
सुरेन्द्र कुमार रंजन
बात प्राचीन समय की है। विजयगढ़ में विजयदत्त नाम का एक पराक्रमी, न्यायप्रिय एवं दूरदर्शी राजा शासन करता था। राजा की तीन पुत्रियाँ थी। तीनों राजकुमारी सुन्दर, सभ्य, सुशील और मृदुभाषी थी। विद्वता में तीनों एक दूसरे से बढ़कर थी। इनकी गुणों की चर्चा आस-पास के राज्यों में प्रसिद्ध थी।
राजा की पुत्रियां जब विवाह योग्य हो गई तो उन्हें चिन्ता सताने लगी। एक दिन राजा ने तीनों पुत्रियों को अपने पास बुलाया। उन्होंने तीनों से पूछा कि क्या तुमलोग बता सकती हो कि तुम्हारा जन्मदाता और कर्मदाता कौन है? पिता के प्रश्न को सुनकर पहली एवं दूसरी बेटी बोली- पिताजी, हमारे जन्मदाता और कर्मदाता दोनों आप ही हैं। लेकिन ठीक इसके विपरीत छोटी पुत्री ने कहा कि पिताजी, मेरे जन्मदाता तो आप हैं मगर कर्मदाता कोई और है। राजा छोटी पुत्री की बात सुनकर दुःखी हुए। उन्होंने निश्चय किया कि इस उदण्डता के लिए वे उसे सबक अवश्य सिखाएंगे।
राजा ने पहली एवं दूसरी बेटी का विवाह अच्छे घरानों में किया लेकिन तीसरी बेटी की शादी एक कोढ़ग्रस्त व्यक्ति से कर दिया। तीसरी बेटी ने यह सोंचकर संतोष कर लिया कि शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था। इस बात की शिकायत उसने किसी से नहीं की और राजी - खुशी अपने पति के साथ ससुराल चली गयी ।
तीसरी पुत्री अपने पति की सेवा तन-मन से करने लगी। लोगों के ताने एवं तीखे व्यंग्यों को सुनते-सुनते अभ्यस्त हो गयी। वह अपने पति को लेकर गंगा भ्रमण के लिए निकल पड़ी। उसने सोंचा कि शायद गंगा माँ के पवित्र जल से उसके पति का कल्याण हो जाय। वह गंगा किनारे रहकर पति की सेवा करने लगी। कई लोगों ने उसे पथभ्रष्ट करने की कोशिश की लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली।
एक दिन शंकर भगवान उसी मार्ग से गुजर रहे थे कि सहसा उनकी नजर तीसरी राजकुमारी पर पड़ी। वह उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गए। अपना रूप बदलकर मनुष्य रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। उन्होंने उसकी सुन्दरता की तारीफ करते हुए शादी का प्रस्ताव रखा। राजकुमारी पतिव्रता धर्म की रक्षा करते हुए बोली कि भारतीय नारी एक बार ही पति का वरण करती है। आप मुझे भारतीय नारी की मर्यादा तोड़ने पर बाध्य ना करें। मेरे नसीब में यदि कष्ट ही लिखा है तो इस कष्ट को मैं हँसकर ही सह लूंगी। राजकुमारी की दृढ़ता एवं पतिव्रता देखकर शंकर भगवान अपने असली रूप में प्रकट होकर बोले - पुत्री, मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ। तुम्हें जो चाहिए वह माँग लो। राजकुमारी बोली कि भगवन् पत्नी के लिए सबसे बड़ा धन उसका पति होता है, इसलिए आप मेरे पति को भला चंगा कर दीजिए। शंकर भगवान बोले कि ऐसा ही होगा। साथ ही उन्होंने यह आशीर्वाद भी दिया कि तुम्हें कभी धन की कमी नहीं होगी। इतना कहकर वे अन्तर्ध्यान हो गए।
पति के भला चंगा हो जाने से वह काफी खुश थी। अब उसके पास धन सम्पत्ति की भी कमी नहीं थी। कमी अगर थी तो सिर्फ माता-पिता एवं बहनों के प्यार की। वह यह सोंचकर परेशान थी कि आखिर वे किस हाल में होंगे। वह अपने पति के सहयोग से उन्हें ढूँढने लगी।
ढूँढ़ते - ढूँढ़ते वह अपने पिता के राज्य में पहुँची। वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि उसके पिता फटेहाल स्थिति में सड़कों पर भीख माँग रहे हैं। वह पिता से पूछी कि आपको इस हालात में पहुंचाने वाला कौन है। वह बोले कि बेटी इस स्थिति का जिम्मेवार मैं स्वयं हूँ। तुमलोगों के चले जाने के बाद मैं बिल्कुल अकेला हो गया और इस एकाकीपन से छुटकारा पाने के लिए मैंने शराब एवं जुए को अपना साथी बना लिया। एक समय ऐसा आया कि मैंने अपने आप को भी बेच दिया। किसी तरह भीख माँगकर गुजारा कर रहा हूँ। बेटी अपने पिता को साथ ले आई।
इसी तरह वह अपने बहन-बहनोई को भी खोज निकाली। उनकी स्थिति भी दयनीय थी। वे लोग भी
अपनी सारी सम्पत्ति जुए एवं शराब में उड़ा दी थी। वह उनलोगों को भी अपने घर ले आई और उनकी तन-मन-धन से सेवा करने लगी।
सभी ने उससे हाथ जोड़कर माफी माँगी। पिता ने बेटी से कहा कि बेटी, तुम जीत गई और मैं हार गया। तुमने सत्य कहा था कि पिता सिर्फ जन्मदाता होता है कर्मदाता नहीं। मैंने जानबूझ कर तेरी शादी एक कोढ़ग्रस्त व्यक्ति से कर दी थी ताकि तुम कष्ट भोग सको। लेकिन तुम्हारे नसीब (कर्म) में सुख लिखा था सो मिल गया। किसी ने सत्य ही कहा है कि व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होता बल्कि कर्म से बड़ा होता है।
➡️ सुरेन्द्र कुमार रंजन
(स्वरचित एवं अप्रकाशित लघुकथा)
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