बिहार विधानसभा चुनाव 2025 - बदलते बिहार की बदलती राजनीति
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक श्री जितेन्द्र कुमार सिन्हा की खबर |
बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों, सामाजिक गठजोड़ों और करिश्माई नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन 2025 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में अलग है। एक ओर सत्ता में बैठे नीतीश कुमार और एनडीए का "डबल इंजन" विकास का दावा है, तो दूसरी ओर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन परिवर्तन का वादा कर रहा है। इन दोनों के बीच प्रशांत किशोर की नई पार्टी जन सुराज, तेज प्रताप का मोर्चा, मुकेश सहनी की वीवीआईपी, और एआईएमआईएम जैसे खिलाड़ी इस चुनाव को और दिलचस्प बना रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या 2025 का चुनाव बिहार की राजनीति की नई पटकथा लिखेगा?
प्रशांत किशोर (पीके) का नाम भारतीय चुनावी रणनीति में बेहद अहम माना जाता है। नरेन्द्र मोदी से लेकर ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी तक, उन्होंने कई नेताओं की चुनावी जीत की पटकथा लिखी है। लेकिन इस बार वह स्वयं मैदान में हैं।
प्रशांत किशोर (पीके) ने दावा किया है कि यदि उनकी पार्टी जन सुराज 140 से कम सीटें जीतती है तो वह इसे अपनी "सबसे बड़ी हार" मानेंगे। उपचुनावों में उनकी पार्टी ने भले जीत न दर्ज की हो, लेकिन राजद को उसकी सीट पर हराकर उन्होंने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। आलोचक मानते हैं कि वह भाजपा की "बी टीम" की तरह काम करेंगे, लेकिन पीके लगातार कहते रहे हैं कि वह जनता की राजनीति करने आए हैं।
जन सुराज की सबसे बड़ी चुनौती है, जातीय समीकरणों में जगह बनाना। यदि प्रशांत किशोर (पीके) यादव-मुस्लिम (एमवाई) समीकरण में सेंध लगा पाए तो वे महागठबंधन को नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन पहली बार चुनाव में उतरी पार्टी के लिए सत्ता की दहलीज तक पहुंचना आसान नहीं होता है।
तेजस्वी यादव आज बिहार की राजनीति में सबसे मजबूत विपक्षी चेहरा हैं। उनका एमवाई समीकरण (मुस्लिम-यादव वोट बैंक) बेहद मजबूत है। उन्होंने नीतीश सरकार को रोजगार, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर घेरा है। तेजस्वी का दावा है कि नीतीश सरकार उनकी घोषणाओं से डरकर योजनाओं की नकल कर रही है। बड़े भाई तेज प्रताप का अलग मोर्चा। कांग्रेस का सीट बंटवारे में दबाव। एआईएमआईएम का सीमांचल और मिथिलांचल में सेंध। यदि इन चुनौतियों पर काबू पाया तो तेजस्वी सत्ता की दहलीज तक पहुंच सकते हैं।
लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप ने चुपचाप अपने पत्ते खोले। उन्होंने पांच छोटी पार्टियों के साथ मिलकर एक नया मोर्चा बना लिया। राजद और कांग्रेस को भी इसमें शामिल होने का न्योता दिया। उनका दावा है कि उनकी जीत "लालू यादव की जीत" होगी। यदि तेज प्रताप का यह प्रयोग सफल हुआ तो इसका सबसे बड़ा नुकसान तेजस्वी और महागठबंधन को होगा। इससे राजद का वोट बैंक बंट सकता है।
मुकेश सहनी, जिन्हें "सन ऑफ मल्लाह" कहा जाता है, बिहार की राजनीति में पिछली बार वीआईपी पार्टी के साथ उभरे थे। 2020 में एनडीए से चुनाव लड़ा और 5 सीटें जीतीं। बाद में 4 विधायक भाजपा में चले गए। अब महागठबंधन के साथ हैं और 40 सीटों तथा उपमुख्यमंत्री पद की मांग कर रहे हैं। उनका वोट बैंक स्थायी नहीं है। यदि भाजपा उन्हें फिर से साध लेती है तो यह महागठबंधन के लिए बड़ा झटका होगा।
2020 में एआईएमआईएम ने 5 सीटें जीती थीं और 15 सीटों पर राजद-कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया था। बाद में राजद ने उनके 4 विधायकों को अपने साथ मिला लिया। अब एआईएमआईएम महागठबंधन में शामिल होने के लिए बड़ी शर्तें रख रहा है। यदि उनकी मांगें पूरी नहीं होती है तो वे पहले की तरह महागठबंधन का नुकसान करेंगे।
कांग्रेस लंबे समय से बिहार में राजद की "बी टीम" मानी जाती रही है। 2020 में 70 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ 19 पर जीत मिली। इस बार कांग्रेस 55 सीटों की मांग कर रही है। कांग्रेस हाईकमान ने संकेत दिया है कि चुनाव के बाद ही तय होगा कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। कांग्रेस का वोट बैंक कमजोर है। लेकिन यदि सीटों पर सही उम्मीदवार उतारे तो महागठबंधन में संतुलन बना सकती है।
नीतीश कुमार लंबे समय से बिहार की राजनीति के केंद्र में हैं। लेकिन इस बार उनकी स्थिति थोड़ी कमजोर लग रही है। क्योंकि भाजपा और जदयू के बीच खींचतान। चिराग पासवान का "भाजपा का हनुमान" बनना। उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी का असमंजस। चुनौती भी है "डबल इंजन सरकार" का विकास एजेंडा। सीतामढ़ी में जानकी जन्मस्थान को राम मंदिर की तरह चुनावी मुद्दा बनाना। रोजगार, पलायन और महिला आरक्षण को प्रचार में लाना।
2020 में चिराग पासवान ने एनडीए का हिस्सा न होते हुए भी नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचाया था। भाजपा उन्हें नीतीश के खिलाफ संतुलन बनाने के लिए फिर से साध सकती है। चिराग लगातार कह रहे हैं कि वे नीतीश को सीएम पद का चेहरा मानते हैं, लेकिन उनकी राजनीति में स्वतंत्रता झलक रही है।
चुनावी मुद्दा हो सकता है रोजगार और पलायन, जातीय समीकरण, विकास बनाम वादे, महिला आरक्षण और ओबीसी कार्ड, धार्मिक ध्रुवीकरण। क्योंकि बिहार से बाहर काम करने जाने वाले युवाओं का मुद्दा बड़ा है। जातीय समीकरण के तहत यादव, मुस्लिम, कुशवाहा, मल्लाह, पासवान, हर जाति निर्णायक भूमिका निभाएगी।विकास बनाम वादे के अन्तर्गत नीतीश-भाजपा का विकास एजेंडा बनाम तेजस्वी के रोजगार वादे। महिला आरक्षण और ओबीसी कार्ड पर भाजपा और जदयू का फोकस। धार्मिक ध्रुवीकरण के तहत जानकी जन्मस्थान को राम मंदिर की तर्ज पर मुद्दा बनाया जा सकता है।
यदि महागठबंधन एकजुट रहता है तो तेजस्वी मजबूत दावेदार होंगे। यदि तेज प्रताप, मुकेश सहनी और ओवैसी अलग राह चलते हैं तो वोट बंटेगा और एनडीए को फायदा मिलेगा। प्रशांत किशोर यदि 40-50 सीटों पर भी असर डालते हैं तो समीकरण पूरी तरह बदल सकता है।
बिहार का चुनाव हमेशा जातीय और सामाजिक समीकरणों पर टिका होता है। लेकिन 2025 में विकास, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दे भी उतनी ही मजबूती से गूंज रहे हैं। तेजस्वी यादव अपनी युवावादी छवि और आक्रामक रणनीति के साथ मैदान में हैं। नीतीश कुमार अनुभव और भाजपा के समर्थन के साथ सत्ता बचाने की कोशिश करेंगे। प्रशांत किशोर, तेज प्रताप, ओवैसी और मुकेश सहनी जैसे खिलाड़ी चुनाव को त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय मुकाबले में बदल देंगे।
यह निश्चित है कि 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव सिर्फ सत्ता का बदलना नहीं होगा, बल्कि बिहार की राजनीति की एक नई कहानी लिखेगा। नई चुनौतियां, नए समीकरण और नए चेहरे, यही इस चुनाव को ऐतिहासिक बनायेगा। ----------------
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