"तुलना की जंजीरों से मुक्ति"
जीवन की सबसे बड़ी भूल तब होती है जब हम अपनी खुशियों एवं सफलताओं की तुलना दूसरों से करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति का संघर्ष, परिस्थितियाँ एवं क्षमताएँ अलग होती हैं। कोई तेज़ चलता है तो कोई धीरे, कोई ऊँचाइयों को जल्दी छूता है तो कोई धीरे-धीरे पर स्थायी रूप से आगे बढ़ता है।
तुलना का खेल एक ऐसा अंतहीन चक्र है, जिसमें पड़ते ही इंसान का मन अशांत हो जाता है। दूसरों की उपलब्धियाँ देखकर ईर्ष्या जन्म लेती है एवं अपने जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ भी फीकी लगने लगती हैं। परिणामस्वरूप, आनंद एवं अपनापन खोने लगता है।
जहां तुलना समाप्त होती है, वहीं से आत्म-संतोष की शुरुआत होती है।
जब हम खुद को अपनाते हैं, तब ही जीवन में वास्तविक शांति, प्रेम एवं संतुलन आता है। याद रखिए, दूसरों से बेहतर बनने की नहीं, बल्कि खुद के भीतर छिपे श्रेष्ठ को खोजने की दौड़ ही सच्चा विकास है।
अतः तुलना छोड़िए, आत्मविकास की राह पकड़िए एवं जीवन को प्रेम व संतोष से भर दीजिए।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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