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"खोखली सत्ता के साए में"

"खोखली सत्ता के साए में"

शर्त मान ली —
तो पुरस्कार में मिली गुलामी,
न मानी —
तो लेबल जड़ दिया गया बग़ावत का,
या ठुंसा दिया गया नक्सली की परिभाषा में।
यह समाज, जो कभी प्रश्न पूछता था,
अब तिरछी निगाहों से देखता है
सवाल करने वाले को।


भावनाओं की मिट्टी से
जब हमने इंसाफ़ का दीप जलाना चाहा —
तो हमें "लेखक" कह दिया गया,
जैसे लेखन अब
कोई अपराध हो गया हो।


लेकिन
शब्द कभी झुकते नहीं —
वे दस्तावेज़ बनते हैं
सत्य की उस रोशनी के
जो किसी सत्ता के कृत्रिम सूरज से नहीं जलती।


ये वही समाज है
जो बाँट दिया गया है —
धर्म में, जाति में, वाणी में,
और सबसे बढ़कर — सोच में।
वही समाज
जिसने प्रश्न छोड़ दिए हैं,
अब तर्क की जगह
जयघोष करता है,
और न्याय की जगह
नारों में खो जाता है।


वो जो सड़कों पर थे —
भूखे, बेघर, बेआवाज़ —
उनकी चीखें
किसी आरती-अजानों में डूब गईं,
किसी जुलूस के शोर में घुल गईं।


सत्ता ने शोषण को
नया नाम दिया —
"विकास", "धर्म", "संरक्षण"।
ज़मीर को बेच दिया गया
नीतियों के बाज़ार में,
और आत्मा का मूल्य
रख दिया गया ईवीएम के नीचे।


तुमने देखा है क्या —
भीड़ में वह चेहरा
जो चुपचाप
अपना हक़ खोता जा रहा है?
या तुम भी
भीड़ हो गए हो —
बिना आत्मा, बिना शक, बिना रोशनी?


शोषण का पहला अध्याय
हमेशा वहीं से शुरू होता है
जहाँ लोग
सोचना बंद कर देते हैं,
और सड़कों पर उतरने वालों को
'ग़लत' कहने लगते हैं।


ध्यान दो —
ध्यान भीतर करो —
ताकि जब अगली बार
कोई तुम्हारे अधिकार की बात करे,
तो तुम उसे गद्दार नहीं,
गुरु मान सको।


क्योंकि जो समाज
सत्ता से प्रश्न नहीं करता,
वो धीरे-धीरे
स्वयं से प्रश्न करना भी भूल जाता है —
और वहीं से
शोषण अमर हो जाता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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