आत्मा स्वयं गुरु और पूर्ण है, इसलिए पूर्णता की ही पूजा होती है

लेखक: अवधेश झा
भारतीय दर्शन और वेदांत की परंपरा में "ज्ञान" को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। परंतु यह ज्ञान केवल बौद्धिक या सूचनात्मक नहीं होता, अपितु आत्मा और ब्रह्म के तत्त्व का बोध कराने वाला वह ज्ञान है जो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। यह ज्ञान आत्मा से उत्पन्न होता है, और आत्मा ही उसका आधार है — आत्मा ही गुरु है, ब्रह्म है और स्वयं में पूर्ण भी।
इस सन्दर्भ में पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस राजेन्द्र प्रसाद ने एक संवाद में अत्यंत सारगर्भित बात कही — "मिथ्या ज्ञान तो स्वतः प्राप्त हो जाता है, पर ब्रह्मज्ञान के लिए प्रयास करना पड़ता है, और यह प्रयास आत्मा स्वयं करती है; क्योंकि आत्मा ही गुरु है, ब्रह्म है, और स्वयं को स्वयं ही ज्ञात कराती है। आत्मा की पूर्ण अवस्था जब चित्त-वृत्तियों के पार स्थित होती है, तभी गुरु- तत्त्व की उपलब्धि होती है।"
आगे उन्होंने आगे कहा — "पूर्ण गुरु ही सदा पूज्य होते हैं। जैसे चंद्रमा की पूर्णता पूर्णिमा कहलाती है, वैसे ही आत्मा की पूर्णता ही गुरु है — जो सदा, सर्वदा स्वयं पूज्य होती है।"
वास्तव में वेदांत का मूल सिद्धांत है: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" यहाँ ब्रह्म आत्मस्वरूप सत्य है, और जगत — इंद्रियगम्य अनुभव — अज्ञानवश सत्य प्रतीत होता है, जबकि वह मिथ्या है। अविद्या ही इस मिथ्या ज्ञान का कारण है।
कठोपनिषद् (1.2.5) में स्पष्ट कहा गया है:
"अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः..."
— “जो लोग अज्ञान में होते हुए भी स्वयं को ज्ञानी समझते हैं।”
यह अविद्या सहज होती है — जैसे अंधकार के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, वैसे ही जन्म से ही जीव माया के प्रभाव में पड़कर असत्य को सत्य मानने लगता है। वह शरीर को आत्मा, संसार को सत्य, और परिवर्तन को स्थायित्व मान बैठता है। लेकिन ब्रह्मज्ञान — आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव — केवल पुरुषार्थ और साधना से ही संभव है।
श्रीमद्भगवद्गीता (4.34) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥"
— अर्थात, तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के समक्ष विनम्रता, जिज्ञासा और सेवा से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। परंतु यह ज्ञान कोई वस्तुगत सूचना नहीं, आत्मसाक्षात्कार है — अनुभव है। इसीलिए, अंततः गुरु बाहर नहीं, भीतर है — आत्मा ही गुरु है। जब साधक अंतर्मुख होता है, तब अनुभव होता है कि बाह्य गुरु तो केवल द्वार खोलने वाले हैं, पर भीतर प्रवेश आत्मा को ही करना होता है। आत्मा ही गुरु, शिष्य और ब्रह्म — तीनों रूपों में विद्यमान है। यही अद्वैत वेदांत का सार है।
बृहदारण्यक उपनिषद् (4.4.22) कहती है:
"तम् एव विदित्वा अति मृत्युं एति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥"
— “उस आत्मा को जानकर ही मृत्यु का अतिक्रमण संभव है; अन्य कोई मार्ग नहीं है।” गुरु बाह्य रूप में पथप्रदर्शक हैं, लेकिन आत्मा ही स्वयं में गुरु है — वही ज्ञानदाता भी और ज्ञाता भी। जस्टिस राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत सुन्दर बात कही कि — "जैसे चंद्रमा की पूर्णता ही पूर्णिमा कहलाती है, वैसे ही पूर्ण गुरु ही पूज्य होता है।" अर्थात, वह ही गुरु है जिसने ब्रह्म का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर लिया हो — जिसे अहं ब्रह्मास्मि, सोऽहम्, तत्त्वमसि जैसे महावाक्यों का न केवल बौद्धिक ज्ञान हो, बल्कि अनुभूति हो।
गुरुगीता में कहा गया है:
"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु: साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥"
— यहाँ "साक्षात् परं ब्रह्म" कहकर यह स्पष्ट किया गया है कि गुरु केवल शिक्षक नहीं, ब्रह्म का साकार स्वरूप हैं। वही पूर्ण गुरु है, जो आत्मस्थित है।
पूर्णता की ही पूजा होती है।
ईशावास्य उपनिषद् के आरंभ में उद्घोष है:
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"
— अर्थात, ब्रह्म पूर्ण है, यह जगत भी उसी पूर्ण से उत्पन्न होकर भी पूर्ण ही रहता है। यह पूर्णता ही परमब्रह्म है, और यही आराध्य है। जैसे हम चंद्रमा के हर दिन को नहीं, केवल पूर्णिमा को पूजते हैं, वैसे ही गुरु भी तभी पूज्य होते हैं जब वे पूर्णता को प्राप्त कर चुके हों।
सभी उपदेशक गुरु नहीं होते। गुरु बनने के लिए आत्मविचार, साधना और शिष्यभाव आवश्यक है। जब शिष्य भीतर की यात्रा में आत्मा को जानता है, तब वही आत्मा गुरु बन जाती है। यह स्थिति गुरु और शिष्य की भिन्नता को मिटाकर आत्मा को ब्रह्मस्वरूप गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करती है। इसलिए, आत्मा ही परमगुरु है — जो अंततः आत्मा को आत्मा से परिचित कराता है। यही ब्रह्मज्ञान है, यही मोक्ष का पथ है, और यही सनातन सत्य है।
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