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स्वाभिमान बनाम घमंड: आत्मचेतना की यात्रा

स्वाभिमान बनाम घमंड: आत्मचेतना की यात्रा

📚 दिव्य रश्मि विशेष लेख
✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र

"मैं हूं" — यह भाव यदि भीतर से उठे तो स्वाभिमान बनता है;
और यदि बाहर की किसी उपलब्धि से उपजे तो घमंड।
लेकिन क्या दोनों में कोई गहरा संबंध नहीं?"

मनुष्य का समस्त जीवन स्वयं को जानने, पहचानने और स्थापित करने की प्रक्रिया है। यह यात्रा अक्सर स्वाभिमान और घमंड के बीच के अत्यंत सूक्ष्म मार्ग से होकर गुजरती है। इस लेख में हम समझने का प्रयास करेंगे कि घमंड क्या है, स्वाभिमान क्या है, और इन दोनों के बीच अंतर कैसे पहचाना जा सकता है।

🌿 घमंड: रजोगुण का मुखर रूप


घमंड एक रजोगुणी वृत्ति है — न अच्छी, न बुरी। यह तब प्रकट होता है जब व्यक्ति स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानने लगता है। घमंडी व्यक्ति को अपना घमंड उचित और दूसरे का अनुचित लगता है। वह स्वयं को "कर्ता" मानकर चलता है। घमंड को सामाजिक बुराई इसलिए माना गया है क्योंकि इसमें दूसरों के अस्तित्व को चुनौती देने का बीज छिपा होता है।

घमंड बाहरी चीजों के सहारे जीता है — पद, प्रतिष्ठा, शक्ति, धन, ज्ञान। जैसे बलहीन व्यक्ति अकड़कर खड़ा हो, वैसा ही खोखलापन उसमें होता है।

🌼 स्वाभिमान: सूक्ष्म आत्म-गौरव


स्वाभिमान वह सूक्ष्म गर्व है, जो मुखर नहीं होता। यह 'मैं हूं' की भावना से उत्पन्न होता है, पर बिना तुलना के। इसमें आत्मविश्वास होता है, जो आत्मबल से आता है, बाहरी साधनों से नहीं।

स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों को चुनौती नहीं देता। वह प्रतिक्रिया तभी करता है जब कोई उसके अस्तित्व को चुनौती दे। वह हस्तक्षेप नहीं करता, और चुपचाप आत्म-स्थिर रहता है।

फिर भी, गहराई से देखें तो स्वाभिमान भी 'मैं' की एक सूक्ष्म छाया है। उसमें भी कभी-कभी 'मैं विशिष्ट हूं' की भावना छिपी हो सकती है। अत: यह भी एक प्रकार का सूक्ष्म घमंड हो सकता है — स्वनिर्भर, परन्तु अहंभावयुक्त।

🔍 कर्ताभाव बनाम द्रष्टाभाव


भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं —
"प्रकृति के गुण ही समस्त कर्मों के कर्ता हैं,
मूढ़ व्यक्ति ही 'मैं करता हूं' ऐसा मानता है।"

इस सूत्र में समाधान छिपा है।
जब हम किसी वृत्ति — चाहे वह घमंड हो, क्रोध हो, भय हो — को कर्ताभाव से जीते हैं, तब हम उसमें लिप्त होते हैं और उसका फल भोगते हैं।
जब हम उसे द्रष्टा बनकर देखते हैं, तब हम तटस्थ हो जाते हैं — न उसे समर्थन देते हैं, न विरोध।
🔥 क्रोध और भय भी प्रकृति के अंग

क्रोध स्वयं में न अच्छा है, न बुरा। भय भी एक नैसर्गिक वृत्ति है।
लेकिन जब हम यह मान लेते हैं कि 'मैं क्रोध कर रहा हूं' या 'मैं डरा हुआ हूं', तो हम अपने अज्ञान के कारण उन वृत्तियों के कर्ता बन जाते हैं।

वास्तव में —
क्रोध ही क्रोध करता है। भय ही भय करता है।
यदि हम होश में रहें तो इनका केवल द्रष्टा बनकर देख सकते हैं।
यह जान लेना ही साधना का मार्ग है।
🌺 सच्चा स्वज्ञान: विरोध या समर्थन नहीं, केवल जागरूकता

प्रकृति जैसी है, वैसी है।

उसका विरोध करने से बंधन बढ़ता है और समर्थन करने से मोह।
सच्चा साधक वह है जो यह देखता है कि भीतर घमंड है, क्रोध है, भय है — लेकिन वह उनका कर्ताभाव से समर्थन नहीं करता, केवल जानता है।

यह जानना स्व-जागरूकता है।
यही सच्चा स्वज्ञान है।
इसी से शुरू होती है आत्म-शांति की यात्रा।

🌈 अंतिम दृष्टि: स्वयं को जानो, दूसरों को मत दोष दो


दूसरों के घमंड को देखकर उन्हें सुधारने की चेष्टा में हम स्वयं घमंड में डूब सकते हैं।
वास्तव में सुधार तभी संभव है जब हम स्वयं शांत हों, सजग हों।
कृष्ण का यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है —
"जो व्यक्ति तीनों गुणों से परे कर्ता को नहीं देखता, वही मुक्त होता है।"

घमंड और स्वाभिमान के बीच की रेखा अत्यंत महीन है।
इसका निर्णय केवल बाहरी व्यवहार से नहीं, भीतर की होश से होता है।
जो होशपूर्वक अपने भीतर की वृत्तियों को देख पाता है,
वही वास्तव में स्वाभिमानी है —
न ऊँचा, न नीचा;
न समर्थक, न विरोधी —
बल्कि एक सजग द्रष्टा।

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