"दुःख एवं सुख की अपेक्षा : जीवन का यथार्थ"
"दुःख का प्रकाट्य वहीं होता है, जहां सुख की अपेक्षा होती है।" यह एक अत्यंत गूढ़ और जीवनपरक सत्य है। मनुष्य का मन स्वाभाविक रूप से सुख की ओर आकर्षित होता है। वह हर स्थिति में आनंद, संतोष और सफलता की कामना करता है। लेकिन जब वास्तविकता इस अपेक्षित सुख से मेल नहीं खाती, तब वही स्थिति दुःख का कारण बन जाती है।
यदि किसी से कोई अपेक्षा ही न हो, तो उसके न मिलने पर भी पीड़ा नहीं होती। जैसे अंधेरे में चलने वाला मनुष्य पहले से सतर्क रहता है, तो ठोकर लगने पर उसे उतना कष्ट नहीं होता। लेकिन यदि दिन के उजाले में भी वह ठोकर खा जाए, तो उसे आश्चर्य और पीड़ा दोनों होती है, क्योंकि वह सुरक्षा की आशा कर रहा था।
इसलिए यह समझना आवश्यक है कि दुःख स्वयं कोई वस्तु नहीं, बल्कि हमारे भीतर की टूटती हुई अपेक्षाओं का परिणाम है। अतः जीवन में यदि हम संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं—सुख की आशा रखें, पर उससे आसक्त न हों—तो दुःख का प्रभाव भी सीमित हो सकता है। यह दृष्टिकोण हमें मानसिक मजबूती देता है, जिससे हम जीवन की हर परिस्थिति का सामना अधिक धैर्य और विवेक से कर सकते हैं।
जीवन में सुख की कामना उचित है, पर उसकी अंधी अपेक्षा न रखें। तभी हम दुःख से मुक्त नहीं तो, उससे परिचित और सक्षम बन सकेंगे। यही संतुलन जीवन को सार्थक बनाता है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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