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दहेज प्रथा और लोग क्या कहेंगे

दहेज प्रथा और लोग क्या कहेंगे

कालचक्र में बदलाव के साथ मनुष्य के सामाजिक रीति रिवाज और रहन सहन में अनेक बदलाव हुए हैं। आधुनिक शिक्षा में प्रचार प्रसार के चलते मनुष्य के जीवन शैली में भी अनेक बदलाव देखने को मिल रहा है। लेकिन एक बात जो अपने जगह पर स्थिर है, वह है हमारे भारतीय समाज में फैली दहेज प्रथा। दहेज प्रथा तब भी थी और आज भी है, बल्कि यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अब दहेज प्रथा ने और भी विकराल रूप धारण कर लिया है।
वास्तव में दहेज प्रथा चल अथवा अचल संपत्ति, नकदी और कुछ घर गृहस्थी का सामान होता है, जो दुल्हन के माता पिता तथा परिवार वाले दूल्हे के माता पिता तथा परिवार वालों को शादी के शर्त के रूप में देते हैं। यह भविष्य में दुल्हन के लिए एक विरासत के रूप में काम करता है, क्योंकि शादी के बाद लड़की का संबंध उसके माता पिता एवं परिवार के साथ टूट जाता है। सही मायने में देखा जाए तो यह प्रथा दुल्हन के माता पिता और परिवार वालों पर बहुत ज्यादा वितीय दबाव डालती है। परंतु भारतवर्ष में दहेज प्रथा के पीछे क‌ई कारण बताये गये हैं, जिनमें सामाजिक और आर्थिक दोनों ही कारण शामिल हैं।
सन् १९५६ के पहले अंग्रेजी शासन के दौरान विवाहित लड़कियों को अपने परिवार की संपत्ति में उतराधिकार का कोई अधिकार नहीं था। पारिवारिक संपत्ति का अधिकार केवल लड़कों को ही मिलता था। अतः लड़कियां नुकसान में रहती थी । ऐसे हालत में विवाहित लड़कियां अपने पति एवं उसके परिवार पर पूर्ण रूप से आश्रित हो जाती थी।
ऐसी स्थिति में दहेज प्रथा ने कम से कम सिद्धांत रूप में ही सही बेटियों को उनके विवाह में चल संपत्ति के रूप में उनके माता पिता एवं परिवार द्वारा दिया गया आर्थिक और घर गृहस्थी का दिया गया सामान कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान की। इससे दो फायदे हुए। एक तो परिवार की संपत्ति के भाग बंटवारा में मदद मिली और साथ ही दुल्हन अथवा बेटी को भी कुछ वितीय सहायता मिली।
इन आर्थिक पहलुओं के अलावा दूसरा जो दहेज के पीछे सामाजिक पहलू है वह है दहेज लेने और देने में बड़प्पन की निशानी। भले ही लड़की का पिता उसकी शादी में खेत बेंच कर अथवा कर्ज लेकर दहेज देता है, परंतु इस लेन देन में दुल्हन पक्ष और दूल्हा पक्ष दोनों ही परिवारों का समाज में नाक कटने से बच जाता है। यह समस्या समाज के हर तबके, गरीब, मध्यमवर्गीय और अमीर सब के साथ है। ऐसा नहीं करने पर यह भय बना रहता है कि लोग क्या कहेंगे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बेटा बेटी को पिता की संपत्ति में अधिकार के कानून में बदलाव हुआ है, परंतु दहेज प्रथा ने और भी उग्र रूप धारण कर लिया है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के बाद सन् २००५ से अब बेटियों को भी बेटों की तरह अपने पिता की संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त है। इसके अनुसार एक विवाहित अथवा कुंवारी लड़की को अपने जन्म के समय से ही अपने पिता की पैतृक तथा अर्जित संपत्ति में बेटों के समान अधिकार प्राप्त हो जाता है।
आज यह कानून तथा इसका प्रभाव सर्वविदित है। बावजूद इसके लड़कियों की उपेक्षा की जाती है। लड़कियों की शिक्षा, उनका सवास्थ्य और उनकी खुद की आय जैसे कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं जो दहेज प्रथा में भूमिका निभाते हैं। आज भारतवर्ष में दहेज प्रथा किसी खास धर्म तक ही शीमित नहीं रह गया है। यह संक्रामक रोग की तरह फैल गया है।
बेटा बेटी को पिता की संपत्ति में समान अधिकार के बाद तथा लड़कियों में शिक्षा का प्रसार होने के बाद ऐसा समझा जा रहा था कि दहेज प्रथा पर कुछ अंकुश लगेगा, पर हमारी सामाजिक भ्रान्तियों के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा है। एक पढ़ा लिखा और संभ्रांत परिवार भी यही सोचता है कि दिखावे के लिए अगर उसने दहेज नहीं लिया तो समाज और लोग क्या कहेंगे। ठीक वैसी ही सोच सामर्थ्य नहीं होने के बावजूद बेटी का बाप और परिवार भी सोचता है कि अगर उसने शादी में अपनी बेटी को दहेज के रूप में नगदी और आधुनिक संसाधन के सामान नहीं दिये तो उसके आस पड़ोस, समाज और लोग क्या कहेंगे। इन दोनों परिवारों की तो समाज में नाक कट जाएगी।
ऐसी हालात में दहेज प्रथा और भी उग्र बनता जा रहा है। आज दहेज के रूप में, भारी नगदी के अलावा,दुल्हन के लिए कीमती पहनावा, कीमती पलंग, सोफासेट, फ्रीज, टीवी, वासिंगमशीन, स्टील की आलमारी, ड्रेसिंग टेबल, डाइनिंग टेबल, सेंटर टेबल, गैस ओवन, कीमती वस्त्रों से भरे हुए दश ट्राली बैग, तथा अनेकों घर गृहस्थी के सामानों के साथ एक कीमती चार चक्का मोटर गाड़ी देना बेटी के पिता के लिए आवश्यक आवस्यकता बन गयी है। ऐसा न करने पर समाज में दोनों पक्ष का नाक कटने का सवाल है और भय बना रहता है कि लोग क्या कहेंगे। कहीं इस कीमती दहेज के अभाव में दोनों परिवारों की बेइज्जती न हो जाये।
आज इस दहेज प्रथा के चलते अनेकों मध्यमवर्गीय परिवार पिस रहे हैं और छटपटाहट में हैं, परंतु लोग क्या कहेंगे, इस भय और सामाजिक अपमान के चलते कर्ज लेकर, पैतृक जमीन बेंचकर, दूसरों की देखा देखी , ऐसा करने को मजबूर हैं, ताकि उनकी बेटी की शादी सुचारू रूप से संपन्न हो जाए और उनकी बेटी सुखी रहे। जय प्रकाश कुंवर
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