भारत में एक चपरासी की नौकरी के लिए भी न्यूनतम योग्यता निर्धारित है, तो नेताओं के लिए क्यों नहीं? क्या यह जनता और देश का अपमान नहीं है?
— डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है जहाँ "जनता ही सर्वोच्च है" का आदर्श संविधान में प्रतिपादित है। लेकिन क्या यह विचार धरातल पर भी उतरा है? एक बड़ा प्रश्न यह है कि जब हमारे देश में चपरासी, क्लर्क, ड्राइवर, पुलिसकर्मी, शिक्षक आदि जैसे छोटे-बड़े पदों पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता, आयु सीमा, परीक्षा और चयन प्रक्रिया निर्धारित की जाती है, तो फिर उस व्यक्ति के लिए — जो पूरे देश या राज्य की बागडोर संभालता है, विधि निर्माण करता है, नीति निर्धारित करता है — कोई शैक्षणिक, नैतिक या व्यावसायिक योग्यता क्यों निर्धारित नहीं की गई है?
एक विडंबना: शिक्षा की अनिवार्यता सिर्फ आम जनता के लिए?
किसी कार्यालय में एक चपरासी बनने के लिए भी कम-से-कम 8वीं या 10वीं पास होना जरूरी है, वहीं एक सांसद या विधायक बनने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य नहीं है। यह कैसा विरोधाभास है? देश के संविधान की रक्षा और क्रियान्वयन का जिम्मा जिन लोगों के कंधों पर है, उनके लिए कोई शैक्षणिक कसौटी नहीं? क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि लोकतंत्र में नेतृत्व की जिम्मेदारी को हल्के में लिया जा रहा है?
नीति निर्माता अनपढ़ या अल्पशिक्षित?
यह कोई सामान्य समस्या नहीं है। आज जब भारत अंतरिक्ष में चंद्रयान भेज रहा है, जब तकनीकी और विज्ञान का युग चरम पर है, ऐसे समय में देश के कई जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जिन्हें संसद या विधानसभा में चर्चा की भाषा तक समझ नहीं आती। वे किसी विधेयक की गहराई नहीं समझ सकते, नीतियों के दूरगामी प्रभावों का आंकलन नहीं कर सकते। सोचिए, क्या ऐसे लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, आर्थिक नीतियों या विदेश नीति जैसे विषयों पर तार्किक निर्णय ले सकते हैं?
यह जनता और राष्ट्र का अपमान क्यों है?
नेताओं की अयोग्यता केवल उनका व्यक्तिगत विषय नहीं है, यह सीधे राष्ट्र और जनता के हितों को प्रभावित करता है। जब अक्षम व्यक्ति निर्णयकर्ता बनता है, तो वह गलत निर्णय लेता है या फिर किसी और के इशारे पर चलता है। यह न केवल लोकतंत्र का मज़ाक है, बल्कि करोड़ों भारतीयों की आकांक्षाओं का अपमान भी है।
जिस देश में शिक्षित बेरोजगारों की भरमार हो, वहां एक अशिक्षित व्यक्ति सिर्फ जातीय, सांप्रदायिक या भावनात्मक लहर पर सवार होकर संसद पहुँच जाए, तो यह लोकतंत्र की विफलता का सूचक है। यह जनता की समझ और चुनावी जागरूकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।
क्या समाधान है?
न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य की जाए:
कम-से-कम स्नातक (Graduate) डिग्री को सांसद/विधायक बनने की अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता बनाया जाए।
नैतिक और आपराधिक रिकॉर्ड की जाँच:
सजायाफ्ता और गंभीर आपराधिक मामलों में आरोपित लोगों को चुनाव लड़ने से वंचित किया जाए।
जनता को शिक्षित करें:
मतदाताओं को शिक्षित और जागरूक बनाना ज़रूरी है ताकि वे योग्य उम्मीदवारों को पहचान सकें।
नेता प्रशिक्षण संस्थान (Leadership Schools):
जनप्रतिनिधियों को विधि, संविधान, प्रशासन, सार्वजनिक नीति जैसे विषयों पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
संसदीय परीक्षा:
जैसे अन्य सेवाओं के लिए सिविल सर्विस परीक्षा होती है, वैसी ही एक न्यूनतम मानक परीक्षा जनप्रतिनिधियों के लिए भी हो सकती है।
निष्कर्ष:
चपरासी की नौकरी के लिए भी योग्यता तय करना और देश चलाने वालों के लिए कोई मानदंड न रखना, केवल विडंबना नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय त्रासदी है। जब तक हम नेतृत्व के लिए शिक्षा, योग्यता और नैतिकता को अनिवार्य नहीं करेंगे, तब तक लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं हो सकतीं। यह समय है जब हम इस विसंगति को खत्म करें और एक नए, शिक्षित, सक्षम, और नैतिक नेतृत्व की नींव रखें।
क्योंकि जब नेता पढ़ा-लिखा, विवेकशील और नीतिशास्त्र से युक्त होता है, तभी राष्ट्र सही दिशा में आगे बढ़ता है।
– डॉ. राकेश दत्त मिश्र
(आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मामलों के विश्लेषक एवं लेखक)
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