श्री जगन्नाथ पुरी: भक्ति, संस्कृति और इतिहास का अद्भुत संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारत के ओडिशा राज्य में स्थित पुरी, जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, और श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ की पावन भूमि है। यह उत्कल प्रदेश के प्रधान भगवान श्री जगन्नाथ का निवास स्थान है और यहाँ की संस्कृति, सभ्यता, पुराणों और स्मृतियों में इसका विशेष उल्लेख मिलता है। यह क्षेत्र श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की कर्मभूमि भी रहा है। पुरी सिर्फ धार्मिक महत्व का केंद्र नहीं, बल्कि यहाँ की स्थापत्य कला, समुद्र का मनोरम किनारा और आसपास के कई ऐतिहासिक स्थल इसे एक अनुपम पर्यटन स्थल बनाते हैं। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मंदिर, धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफाएँ जो भगवान बुद्ध की मूर्तियों से सजी हैं, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मंदिर, पुरी और चंद्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चंदन तालाब, जनकपुर और नंदनकानन अभ्यारण्य — ये सभी ओडिशा की समृद्ध विरासत के प्रतीक हैं।
जगन्नाथ रथयात्रा: एक अद्वितीय आध्यात्मिक यात्रा
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होने वाली भगवान जगन्नाथ रथयात्रा एक विश्व प्रसिद्ध पर्व है, जो पारंपरिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है। स्कंद पुराण के अनुसार, इस रथयात्रा में श्री जगन्नाथ का कीर्तन करते हुए गुंडीचा नगर तक जाते हैं।
रथयात्रा में तीन विशाल रथों का उपयोग होता है:
तालध्वज: यह 65 फीट लंबा, 65 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊँचा रथ है, जिसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे होते हैं। इस पर सबसे आगे श्री बलराम विराजमान होते हैं।पद्म ध्वज: इस रथ पर माता सुभद्रा और सुदर्शन चक्र विराजते हैं। यह बलभद्र जी के रथ तालध्वज और जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटा होता है।गरुण ध्वज (नंदीघोष): यह भगवान श्री जगन्नाथ का रथ है, जो सबसे पीछे चलता है।संध्या तक ये तीनों रथ गुंडीचा मंदिर पहुँच जाते हैं, जहाँ भगवान रथ से उतर कर मंदिर में प्रवेश कर सात दिन तक निवास करते हैं। गुंडीचा मंदिर में नौ दिनों तक श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है।
महाप्रसाद और जनकपुर का महत्व
भगवान श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त है। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की निष्ठा की परीक्षा से इसका महत्व और बढ़ गया था, जब एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर उन्होंने प्रसाद हाथ में लेकर रात भर उसका स्तवन किया और अगले दिन द्वादशी को उसे ग्रहण किया। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ यहाँ के प्रमुख प्रसाद हैं। रथयात्रा के दौरान जनकपुर को भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर माना जाता है। यहाँ भगवान जगन्नाथ दसों अवतारों का रूप धारण करते हैं और मौसी के घर पकवान खाकर बीमार हो जाते हैं, जिसके बाद उन्हें पथ्य का भोग लगाकर ठीक किया जाता है। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते हुए जनकपुर पहुँचती हैं, लेकिन द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं। इससे नाराज़ होकर लक्ष्मी जी रथ का पहिया तोड़ देती हैं और अपने मंदिर, हेरा गोहिरी साही, लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं और उनसे क्षमा माँगकर तथा अनेक उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करते हैं। इस आयोजन में द्वैताधिपति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में और देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करते हैं। लक्ष्मी जी के मान जाने को विजय का प्रतीक मानकर वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है।
जगन्नाथ मूर्तियों का रहस्यमय उद्भव
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं, बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। इसका संबंध एक प्राचीन कथा से है, जिसमें माता रोहिणी ने द्वारिका में श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता महारानियों को सुनाई थी। इस कथा को सुनते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा तीनों भाव विह्वल हो गए थे और उनके अंग-अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा, जिससे उनके हाथ-पैर स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र भी विगलित होकर लंबा आकार ग्रहण कर लिया था। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था। नारद मुनि के आगमन से वे तीनों पूर्ववत हो गए, और नारद के आग्रह पर भगवान कृष्ण ने वरदान दिया कि उनके इस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के दर्शन पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहें। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियों का निर्माण भी एक रहस्यमय कथा से जुड़ा है। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित विष्णु की मूर्ति दिखाई दी थी। बाद में उन्हें समुद्र तट पर एक दारु (लकड़ी) का विशालकाय लट्ठा मिला। भगवान विष्णु के निर्देश पर उन्होंने विश्वकर्मा जी को वृद्ध बढ़ई के रूप में पाया, जिन्होंने एक शर्त रखी कि वे एक माह तक बंद कमरे में मूर्ति बनाएंगे और कोई अंदर नहीं आएगा। माह के अंतिम दिन, रानी की उत्सुकतावश द्वार खोलने पर, बढ़ई कहीं नहीं मिला और केवल अर्द्धनिर्मित मूर्तियाँ मिलीं। आकाशवाणी हुई कि ये मूर्तियाँ इसी रूप में स्थापित होंगी और पूजी जाएँगी।
बौद्ध इतिहासकारों के अनुसार, जगन्नाथ मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था, जिसमें गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था। बाद में इसे श्रीलंका के कैंडी पहुँचा दिया गया। यह जगन्नाथ मंदिर में विभिन्न धर्मों, मतों और विश्वासों के अद्भुत समन्वय का प्रमाण है।
श्री जगन्नाथ मंदिर: स्थापत्य कला और धार्मिक महत्व
पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर, कलिंग शैली की स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसका निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्द्धन चोडगंग देव ने आरंभ कराया और ओडिशा के राजा अनंग भीमदेव द्वारा 1174 ई. में इसे पूर्ण रूप दिया गया। मंदिर का विशाल क्षेत्र 400,000 वर्ग फुट (37,000 वर्ग मीटर) में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है।
मंदिर के मुख्य ढाँचे में 214 फीट (65 मीटर) ऊँचे पाषाण चबूतरे पर बना गर्भगृह है, जहाँ भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की रत्न मंडित पाषाण चबूतरे पर स्थापित मूर्तियाँ हैं। मंदिर के शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है, जिसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित और अति पावन माना जाता है। मंदिर में एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है, जिसके द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।
जगन्नाथ मंदिर अपनी विशाल रसोई के लिए भी प्रसिद्ध है, जहाँ भगवान को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए 500 रसोइए और उनके 300 सहयोगी काम करते हैं। हालाँकि, मंदिर में गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन वे मंदिर परिसर के बाहर से दर्शन कर सकते हैं।
जगन्नाथ मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है, और गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भी भगवान जगन्नाथ के उपासक थे। इतिहास में, अफगान जनरल काला पहाड़ द्वारा मंदिर को ध्वंस करने और पूजा बंद कराने के बाद, रामचंद्र देब द्वारा मूर्तियों और मंदिर की पुनर्स्थापना की गई थी।
पुरी: चार धामों में से एक और सांस्कृतिक धरोहर
भारत के चार पवित्रतम धामों में से एक पुरी को समुद्र धोता है, जहाँ भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की पवित्र नगरी समुद्र के आनंद के साथ-साथ धार्मिक तटों और 'दर्शन' की धार्मिक भावना का भी अनुभव कराती है। पुरी को हजारों वर्षों से नीलगिरी, नीलाद्रि, नीलाचल, पुरुषोत्तम, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम, जगन्नाथ पुरी के नाम से जाना जाता है।पुरी के पास भगवान साक्षीगोपाल मंदिर (20 कि.मी. दूर) भी एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है, जहाँ 'आँवला नवमी' पर श्री राधा जी के पवित्र पैरों के दर्शन किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, बालिघाई में प्रसिद्ध सूर्य मंदिर कोणार्क भी स्थित है, जो 13वीं सदी की वास्तुकला और मूर्तिकला का अद्भुत उदाहरण है। झारखंड राज्य के राँची जिले में भी जगन्नाथपुर में भगवान जगन्नाथ मंदिर स्थित है, जहाँ प्रतिवर्ष रथयात्रा निकाली जाती है।जगन्नाथ पुरी भारतीय संस्कृति, भक्ति और इतिहास का एक जीवंत प्रतीक है, जो हर साल लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।
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