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तुम नेह की स्वाति सुगंध हो

तुम नेह की स्वाति सुगंध हो

शुभ्र ज्योत्स्ना मुखमंडल,
अंतर पटल प्रीति निर्झर ।
पुलकित प्रफुल्लित आभा,
तृषा तृप्त आनंद झर झर ।
हाव भाव मस्त मदहोश,
प्रीत रीत दिव्य अनुबंध हो ।
तुम नेह की स्वाति सुगंध हो ।।

प्रति पल मिलन उमंग,
स्मृति पट मोहिनी रूप ।
श्रृंगार अति मोहक सुंदर,
आकर्षण बिंब स्नेह अनूप ।
यौवन उभार मद अर्णव,
नयनन प्रणय धार स्वछंद हो ।
तुम नेह की स्वाति सुगंध हो ।।


सान्निध्य उल्लास मोद,
स्वप्न माला रूप जीवंत ।
चाल ढाल उत्साह आरेख ,
सौंदर्य अनुपमा अत्यंत ।
हिय प्रिय रसिक भामिनी,
मुस्कानी मनुहार सुबंध हो ।
तुम नेह की स्वाति सुगंध हो ।।


अंतःकरण प्रेम पुष्कर,
अभिव्यक्ति भाव अतरंग ।
शब्द माधुर्य राग अथाह,
चारु चंद्र चंचलता संग ।
निशि दिन रमणीक प्रभा,
तारुण्य रस सुप्रबंध हो।
तुम नेह की स्वाति सुगंध हो ।।


कुमार महेन्द्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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