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“सोशल मीडिया के कारण रिश्तों का विखरना और अपनों से दूरी”

“सोशल मीडिया के कारण रिश्तों का विखरना और अपनों से दूरी”

लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र

विज्ञान और तकनीक की प्रगति ने मनुष्य के जीवन को जितनी सुविधाएं दी हैं, उतने ही नए संकट भी उत्पन्न किए हैं। विशेषकर, संचार के क्षेत्र में सोशल मीडिया (Social Media) एक क्रांति बनकर उभरा है, जिसने सीमाओं को मिटा दिया है, लेकिन भावनात्मक दूरी को भी बढ़ा दिया है। आज सोशल मीडिया के माध्यम से कोई व्यक्ति पलभर में दुनिया के किसी भी कोने में अपने विचार साझा कर सकता है, लेकिन दुःखद सत्य यह है कि वही व्यक्ति अपने पास बैठे अपने परिजनों से संवादहीन होता जा रहा है।

सोशल मीडिया का आरंभ और विकास:

सोशल मीडिया की शुरुआत एक संवाद माध्यम के रूप में हुई थी, ताकि लोग एक-दूसरे से जुड़ सकें, पुराने दोस्तों से संपर्क बना सकें, और अपनी बातों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर सकें। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, स्नैपचैट आदि जैसे प्लेटफॉर्म्स ने संवाद को वैश्विक बना दिया। पहले जो चिट्ठियों और फोन कॉल्स पर निर्भर था, वह अब पलभर की टेक्स्ट और इमोजी में बदल गया।

लेकिन यही क्रांति धीरे-धीरे हमारे निजी जीवन में घुसपैठ करने लगी। संवाद के नाम पर दिखावा, दोस्ती के नाम पर दिखावटी लाइक्स, और सच्चे रिश्तों के स्थान पर वर्चुअल कनेक्शन ने हमारी मानवीय भावनाओं की जड़ों को झकझोर दिया।

परिवारिक रिश्तों पर सोशल मीडिया का प्रभाव:

1. संवादहीनता की बढ़ती खाई:

परिवार, जो संवाद की सबसे पहली पाठशाला होता है, वहां आज सन्नाटा पसर गया है। भोजन के समय भी प्रत्येक सदस्य मोबाइल स्क्रीन में डूबा होता है। माता-पिता अपने बच्चों से, पति-पत्नी एक-दूसरे से, भाई-बहन आपस में भावनात्मक संवाद से दूर होते जा रहे हैं।

2. समय की चोरी:

जिस समय को हम अपनों के साथ हँसी-ठिठोली, अनुभवों और विचारों के साझा में बिता सकते थे, वह समय अब रील्स, स्टोरी और न्यूजफीड्स के हवाले हो चुका है।

3. तुलना और असंतोष:

सोशल मीडिया एक कृत्रिम जीवनशैली को प्रस्तुत करता है जहाँ लोग सिर्फ अपनी खुशी, संपन्नता और सफलता का दिखावा करते हैं। इससे परिवार के सदस्यों के बीच भी तुलना होने लगती है - "देखो, उनके पति उन्हें हर महीने गिफ्ट देते हैं", "उसके बच्चे कितने स्मार्ट लगते हैं", आदि। इससे घरेलू रिश्तों में अविश्वास और असंतोष की भावना जन्म लेती है।

4. बच्चों की परवरिश पर असर:

बच्चों को कहानी सुनाने वाले दादा-दादी अब बच्चों के साथ बैठने के बजाय अकेले बैठे टीवी या मोबाइल में डूबे हैं। वहीं बच्चे भी वर्चुअल गेम्स और यूट्यूब वीडियो में ऐसा रम गए हैं कि वे वास्तविक जीवन की शिक्षा और नैतिकता से दूर हो गए हैं।


दांपत्य संबंधों पर सोशल मीडिया का प्रभाव:

1. निजी जीवन का सार्वजनिक प्रदर्शन:

पति-पत्नी के बीच के जो क्षण सिर्फ उनके होने चाहिए थे, अब वे कैमरे में कैद होकर दुनिया के सामने ‘लाइक’ के लिए परोसे जा रहे हैं। यह प्रदर्शन धीरे-धीरे रिश्ते की आत्मा को खोखला कर देता है।

2. भरोसे में सेंध:

आज व्हाट्सएप की प्राइवेसी सेटिंग्स, इंस्टाग्राम की फॉलो लिस्ट और फेसबुक की चैट हिस्ट्री पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। यह डिजिटल अनिश्चितता विश्वास की बुनियाद को कमजोर कर रही है।

3. मानसिक थकान और भावनात्मक अलगाव:

जब पार्टनर अपनी भावनाएं सोशल मीडिया पर व्यक्त करता है, लेकिन घर पर चुप रहता है, तब एक असहजता जन्म लेती है। यह धीरे-धीरे संबंधों को थका देता है।


मित्रता और सामाजिक संबंधों पर प्रभाव:

1. सतही मित्रता:

सोशल मीडिया पर हजारों दोस्त बन जाते हैं, लेकिन जरूरत के वक्त कोई नहीं होता। वास्तविक मित्रता, जो सुख-दुख में साथ देती थी, अब 'टैग' और 'शेयर' तक सीमित हो गई है।

2. ईर्ष्या और दिखावा:

दूसरे की खुशियों को देखकर ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और अवसाद पनपते हैं। यह न केवल आत्मविश्वास को डगमगाता है, बल्कि सामाजिक रिश्तों में भी दरार पैदा करता है।


सोशल मीडिया का मानसिक और सामाजिक दुष्प्रभाव:

1. अकेलापन और अवसाद:

ज्यादा समय तक सोशल मीडिया पर रहना मस्तिष्क में डोपामिन (Dopamine) की मात्रा को असंतुलित करता है, जिससे इंसान आभासी संतोष तो पाता है, लेकिन अंदर से खाली होता जाता है। अकेलापन, अवसाद और आत्महत्या जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं।

2. पहचान का संकट:

लोग आज अपनी वास्तविक पहचान छोड़कर वर्चुअल 'इमेज' में जीने लगे हैं। इससे व्यक्तित्व में असंतुलन और आत्ममूल्यांकन की समस्या बढ़ रही है।

3. समय और ऊर्जा की बर्बादी:

सोशल मीडिया ने हमारी रचनात्मकता को भी प्रभावित किया है। जो समय हम अध्ययन, सृजन, आत्मविकास या सेवा कार्यों में लगा सकते थे, वह अब स्क्रीन पर उँगलियाँ घुमाने में चला जाता है।


कारणों की गहराई में उतरते हुए:
डिजिटल अज्ञानता: लोगों को यह समझ नहीं कि कब, कैसे और कितना सोशल मीडिया उपयोग करना चाहिए।
भावनात्मक असुरक्षा: लोग सोशल मीडिया पर लगातार उपस्थिति बनाए रखते हैं ताकि उन्हें 'प्रासंगिक' महसूस हो।
स्वीकृति की लालसा: 'लाइक', 'कमेंट' और 'शेयर' के माध्यम से समाज की स्वीकृति पाने की इच्छा व्यक्ति को वास्तविक जीवन से दूर कर देती है।
व्यस्तता का भ्रम: सोशल मीडिया एक प्रकार का व्यस्तता का भ्रम देता है। आदमी व्यस्त दिखता है पर कोई सार्थक कार्य नहीं करता।

समाधान की दिशा में सोचें:

1. डिजिटल अनुशासन:

  • परिवार में ‘नो फोन जोन’ (जैसे भोजन के समय) बनाया जाए।
  • बच्चों को तकनीक का विवेकपूर्ण प्रयोग सिखाया जाए।
  • सुबह उठने के बाद कम से कम एक घंटा सोशल मीडिया से दूर रहें।


2. संवाद को प्राथमिकता:

– हर दिन परिवार के साथ बिना मोबाइल के 30 मिनट संवाद समय तय करें।
– दांपत्य में 'रील' बनाने की जगह ‘रील रिलेशन’ पर ध्यान दें।

3. आत्ममूल्यांकन:

– क्या सोशल मीडिया पर बिताया गया समय आपके रिश्तों को सुदृढ़ कर रहा है या कमजोर?
– क्या आप अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय अब भी अपने अनुभव और रिश्तों से लेते हैं या ट्रेंड्स से?


उदाहरण और वास्तविकता:

  • एक माँ ने बताया कि उसका बेटा दिन-रात गेम खेलता है, उसे यह भी नहीं पता कि उसके पिताजी बीमार हैं।
  • एक पत्नी ने बताया कि उसका पति इंस्टाग्राम पर सभी को ‘हैप्पी वाइफ’ दिखाता है लेकिन असल में 5 दिन से उससे बात नहीं की।
  • एक बच्ची ने कहा – “पापा मुझे कहानी सुनाओ”, लेकिन पिता मोबाइल पर बिजी थे।


ये उदाहरण चीख-चीख कर कह रहे हैं कि तकनीक ने रिश्तों को ‘टेक्नीकल’ बना दिया है।

सोशल मीडिया अपने आप में कोई बुराई नहीं है। यह एक साधन है – साध्य नहीं। यदि इसका विवेकपूर्ण उपयोग हो, तो यह रिश्तों को जोड़ भी सकता है, लेकिन आज यह दूरियाँ बढ़ा रहा है। रिश्तों की गर्मी को स्क्रीन की ठंडक से नहीं मापा जा सकता।

आज हमें जरूरत है आत्ममंथन की। हमें रिश्तों में फिर से वह अपनापन, संवाद, सामीप्य और संवेदनशीलता भरनी होगी जो कभी हमारी संस्कृति की आत्मा थी। सोशल मीडिया को एक माध्यम तक सीमित रखें, उसे अपने जीवन का आधार न बनाएं।

"फोन को थोड़ा दूर रखिए, अपने को पास लाइए। रील से बाहर आइए, और रिश्तों की रील को फिर से चलाइए।" 🙏सादर समर्पित – डॉ. राकेश दत्त मिश्र
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