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सुगंध की सौगंध

सुगंध की सौगंध

प्यार व्यवहार विस्तार में ,
नहीं होता सौदा अनुबंध ।
वादे निभाने के ही रूप में ,
छिपा है सुगंध की सौगंध ।।
शपथ न गीता पे हाथ रख ,
शपथ हृदय पे हाथ रख ।
हृदय में आत्मा का वास ,
प्रेम का मधुर स्वाद चख ।।
प्राकृतिक होता ये विज्ञान ,
प्राकृतिक यह अनुसंधान ।
मानवता हेतु बना मानव ,
इंसानियत हेतु ये इंसान ।।
आजीवन है वादे निभाना ,
मानव जीवन का रिवाज ।
यही तो शीश का है पगड़ी ,
यही तो मानव शीश ताज ।।
मानव में हम जन्म लिए हैं ,
मानव जीवन पे होता नाज ।
खग सा हम चहकें व कूकें ,
बचे रहें बनने से हम बाज ।।
यही होता सुगंध की सौगंध ,
जो मन ही मन हम खाते हैं ।
नहीं इसमें कोई है बाध्यता ,
निष्कपट अपना बनाते हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार
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