Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

संस्कृत साहित्य के उद्भट विद्वान: महाकवि मयूरभट्ट

संस्कृत साहित्य के उद्भट विद्वान: महाकवि मयूरभट्ट

✍️ सत्येन्द्र कुमार पाठक

संस्कृत साहित्य का इतिहास अनेक महान कवियों, लेखकों और चिंतकों से समृद्ध रहा है। इस परंपरा में एक ऐसा नाम भी है, जो अपनी काव्य प्रतिभा, आध्यात्मिक निष्ठा और जीवन के संघर्ष से आज भी हमें प्रेरणा देता है – यह नाम है महाकवि मयूरभट्ट का। वे केवल कवि नहीं थे, बल्कि आस्था, साधना और साहित्य का संगम थे। उनकी रचनाओं में जहां आध्यात्मिक ऊँचाई है, वहीं शिल्प और छंद का अद्भुत सौंदर्य भी है। वे एक ऐसे रचनाकार थे, जिनकी कविता न केवल साहित्य का सौंदर्यशास्त्र है, बल्कि आराधना की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण भी।

मयूरभट्ट: जीवन परिचय और पारिवारिक पृष्ठभूमि


महाकवि मयूरभट्ट का जन्म 7वीं शताब्दी में बिहार राज्य के औरंगाबाद जिले के दाउदनगर अनुमंडल स्थित मायर ग्राम में हुआ था। यह ग्राम सूर्योपासना और शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का प्रमुख केंद्र था। मयूरभट्ट शाकद्वीपीय ब्राह्मण समुदाय से थे, जो अपने ज्योतिष, वैदिक ज्ञान और सूर्योपासना के लिए जाने जाते हैं।

मयूरभट्ट के माता-पिता का देहांत उनके बचपन में ही हो गया था। वे अपनी बहन के साथ रहे, जिनका विवाह उस काल के महान कवि बाणभट्ट से हुआ था। बाणभट्ट, सम्राट हर्षवर्धन के दरबारी कवि थे। इस प्रकार मयूरभट्ट का संपर्क तत्कालीन विद्वान समुदाय से प्रारंभ से ही रहा।

मयूरभट्ट और कुष्ठ रोग की कथा


मयूरभट्ट के जीवन से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा उनके कुष्ठ रोग और उससे मुक्ति के विषय में है। लोककथाओं के अनुसार एक बार जब बाणभट्ट अपनी पत्नी को मनाने के लिए एक श्लोक के तीन चरण कह रहे थे, तब मयूरभट्ट ने अंतिम चौथा चरण जोड़ दिया। इससे बाणभट्ट की पत्नी क्रोधित हो गईं और उन्होंने मयूरभट्ट को कुष्ठ रोग का शाप दे दिया।

शाप से ग्रसित होकर मयूरभट्ट अपने जन्मस्थल मायर लौटे और वहां उन्होंने भगवान सूर्य की तपस्वी उपासना की। इसी साधना के दौरान उन्होंने संस्कृत साहित्य की कालजयी रचना ‘सूर्यशतक’ की रचना की। इस स्तोत्र की रचना से उन्हें कुष्ठ रोग से मुक्ति मिली। इस घटना को आचार्य मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ ग्रंथ में उद्धृत किया है –


"आदित्यादेर्मयूरादीनामिवानर्थ निवारणम्"
(काव्यप्रकाश, प्रथम उल्लास)

साहित्यिक प्रतिष्ठा और दरबारी सम्मान


मयूरभट्ट की विद्वत्ता और काव्यकला को उस समय के सम्राट हर्षवर्धन ने भी सराहा। उनकी प्रतिष्ठा बाणभट्ट के समकक्ष थी। राजशेखर की ‘शारंगधर पद्धति’ में कहा गया है –


"अहो प्रभावो वाग्देव्या: यन्मातंगदिवाकरा:।
श्रीहर्षस्याभवन् सभ्या: समा: बाणमयूरयो:॥"

इससे स्पष्ट है कि हर्षवर्धन के दरबार में बाणभट्ट, मयूरभट्ट, मतंग, दिवाकर जैसे विद्वान कवि एक साथ विद्यमान थे। मयूरभट्ट को भी उसी सम्मान के साथ देखा गया जैसे बाणभट्ट को।
'सूर्यशतक': साधना और साहित्य का समागम

‘सूर्यशतक’ मयूरभट्ट की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ स्तोत्रों में गिनी जाती है। यह ग्रंथ स्रग्धरा छंद में रचा गया है, जो संस्कृत के सबसे समृद्ध और दीर्घ छंदों में एक है। इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा और रूपक अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग है, जो मयूरभट्ट की पांडित्यपूर्ण रचनाशैली को दर्शाता है।

‘सूर्यशतक’ में न केवल भगवान सूर्य की स्तुति है, बल्कि उसमें चिकित्सा, धर्म, दर्शन और आध्यात्मिकता का संगम है। यह रचना आज भी नित्यपाठ, उपासना, और चिकित्सा पद्धतियों में प्रयोग की जाती है।

'मयूराष्टक' और श्रृंगाररस


मयूरभट्ट ने एक और रचना ‘मयूराष्टक’ की रचना की थी, जो श्रृंगार रस प्रधान है। इसमें एक प्रिय के पास से लौटती प्रेयसी का मनोहारी चित्रण है। इस रचना को कोलंबिया विश्वविद्यालय से जे.पी. क्वेकेन्बॉस और ए.वी. विलियम्स जैक्सन ने प्रकाशित किया था, जो इसकी वैश्विक मान्यता का परिचायक है।
मंगल काव्य और धर्ममंगल परंपरा में योगदान

मयूरभट्ट को मंगल काव्य का पहला लेखक भी माना जाता है। उनके समय में जब बंगाल और उड़ीसा में तांत्रिक बौद्ध धर्म का क्षय हो रहा था, तब हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हो रहा था। इसी समय ‘धर्म ठाकुर’ नामक देवता की कल्पना हुई और उनके संबंध में ‘धर्ममंगल’ साहित्य लिखा गया। मयूरभट्ट को इस परंपरा की नींव रखने वाला कवि माना गया है।

मायर: एक सांस्कृतिक तीर्थ


मयूरभट्ट ने अपने जन्मस्थान मायर को सूर्य उपासना का एक प्रमुख केंद्र बना दिया। यह स्थान शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का गढ़ बन गया। यह कहा जाता है कि 590 ई. से 647 ई. तक मायर एक सौर धर्म का केंद्र रहा और दाउदनगर तथा अरवल क्षेत्र मयूरभट्ट के अधीन था। आज भी मायर, गया, नवादा, अरवल, नालंदा, पटना, मिथिला, गोरखपुर, छपरा जैसे क्षेत्रों में मयूरभट्ट के वंशज ‘भट्ट, मिश्र, शर्मा, द्विवेदी’ आदि उपनामों से मिलते हैं।

बाद में 1712 ई. में बिहार के सूबेदार शमशेर खां ने इस स्थान का नाम बदलकर शमशेरनगर रख दिया और वहीं अपना मकबरा भी बनवाया।

काव्य और साधना का अमर समन्वय


मयूरभट्ट की काव्य रचनाएँ केवल साहित्य नहीं हैं, वे भक्ति, साधना, संघर्ष, और विजय की कथा हैं। उन्होंने दिखाया कि यदि आस्था दृढ़ हो, तो कोई भी रोग, संकट, या बाधा व्यक्ति को रोक नहीं सकती। 'सूर्यशतक' इसका प्रमाण है।

उनके जीवन की यह गाथा आज भी हमें यह प्रेरणा देती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य और साधना से न डिगें। उनकी काव्य प्रतिभा, धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक चेतना आज भी हिन्दी और संस्कृत साहित्य के विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं और भक्तों के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है।

साहित्य का अमर दीप


महाकवि मयूरभट्ट एक ऐसे लेखक थे, जिन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं होता, बल्कि यह आत्मा की पुकार और आत्मा की साधना भी हो सकता है। उनके द्वारा रचित ‘सूर्यशतक’ केवल एक काव्य ग्रंथ नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चिकित्सा का महामंत्र बन चुका है।

मयूरभट्ट की स्मृति और साहित्य हमें यह सिखाते हैं कि रचना, आस्था, और संघर्ष के मार्ग पर चलने वाला कभी पराजित नहीं होता। संस्कृत साहित्य का यह ध्रुव तारा युगों-युगों तक भारतीय संस्कृति के आकाश में चमकता रहेगा।

“मयूरभट्ट की लेखनी सूर्य के समान तेजस्वी थी – जो अंधकार मिटाती है और जीवन में प्रकाश भरती है।”

हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ