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"तजुर्बे की दीवार"

"तजुर्बे की दीवार"

लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र

गांव से शहर आया हुआ रमेश अब शहर के तौर-तरीकों में ढल चुका था। उसकी सोच, रहन-सहन, बोलचाल सब कुछ बदल चुका था। पर अब भी उसके माता-पिता गांव में उसी मिट्टी की खुशबू से जुड़े हुए थे। रमेश की नौकरी एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में थी, और वह खुद को अपने माता-पिता से कहीं ज्यादा समझदार मानने लगा था।

रमेश का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उसके पिता, रघुवीर सिंह, गांव के प्रतिष्ठित बुजुर्ग माने जाते थे। उन्होंने कभी कोई बड़ी डिग्री नहीं ली थी, पर जीवन के अनुभव ने उन्हें इतना कुछ सिखा दिया था कि लोग उनके पास सलाह लेने आते थे।

रमेश पढ़ने में होशियार था, इसलिए रघुवीर सिंह ने अपने खेत बेचकर उसे शहर भेजा था। रमेश ने कड़ी मेहनत से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में नौकरी पा ली।

लेकिन जैसे-जैसे रमेश आगे बढ़ता गया, उसके भीतर एक घमंड पनपने लगा। उसे लगने लगा कि उसके माता-पिता पुराने ख्यालों के हैं और उनके पास आज की दुनिया की समझ नहीं है।

एक दिन रमेश के पिता शहर आए। उन्होंने देखा कि रमेश अब एक बड़े अपार्टमेंट में रहता है, कार से चलता है, और अंग्रेज़ी में बात करता है। उन्होंने प्रसन्नता जताई, लेकिन रमेश को बार-बार यह कहते पाया कि "अब जमाना बदल गया है पापा, आपकी बातें अब नहीं चलती।"

रघुवीर सिंह चुप रहे, लेकिन उनके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान थी।

"बेटा," उन्होंने कहा, "समय जरूर बदला है, लेकिन इंसान की मूल प्रवृत्तियाँ नहीं बदलीं। प्यार, सम्मान, समझदारी—ये सब तजुर्बे से आते हैं, डिग्री से नहीं।"

रमेश ने बात को हल्के में लिया। उसने सोचा कि अब उसके पिता को आराम करना चाहिए, दुनिया को समझने की ज़रूरत नहीं।

रमेश एक लड़की, नेहा, से प्यार करता था। नेहा एक आज़ाद ख्यालों वाली, आधुनिक सोच की लड़की थी। वो लिव-इन रिलेशनशिप में रहना चाहती थी और विवाह को एक औपचारिकता मानती थी। रमेश ने अपने माता-पिता को यह बात बताई तो घर में भूचाल आ गया।

"बेटा, विवाह केवल दो लोगों का नहीं, दो परिवारों का मिलन होता है," रघुवीर सिंह ने कहा।

"पापा, आप नहीं समझेंगे, यह 2025 है, अब रिश्तों की परिभाषा बदल गई है," रमेश ने चिढ़कर कहा।

रघुवीर सिंह ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके मन में गहरी चिंता थी।

कुछ महीने बीते। नेहा और रमेश एक साथ रहने लगे। शुरुआत में सब कुछ अच्छा था, लेकिन जल्द ही दोनों के बीच मतभेद शुरू हो गए। नेहा अपने करियर को प्राथमिकता देती थी, जबकि रमेश को परिवार बसाना था। एक दिन नेहा ने कहा, "मुझे स्पेस चाहिए, शायद हमें कुछ समय के लिए अलग हो जाना चाहिए।"

रमेश टूट गया। वह पहली बार जीवन में किसी मोड़ पर खुद को अकेला और असहाय महसूस कर रहा था। तब उसे अपने पिता की बातें याद आईं।

रमेश ने फोन उठाया और अपने पिता को बुलाया। रघुवीर सिंह तुरंत शहर पहुंचे। उन्होंने रमेश को गले लगाया और कहा, "बेटा, गिरना कोई शर्म की बात नहीं, लेकिन गिरकर न सीखना मूर्खता है।"

रमेश की आंखें भर आईं। उसने पहली बार महसूस किया कि उसके पिता न केवल उसके लिए जीते हैं, बल्कि जीवन की उन पेचिदगियों को भी जानते हैं, जिनसे वह अभी-अभी टकराया है।

रमेश ने अपने जीवन को दोबारा व्यवस्थित करना शुरू किया। वह अपने माता-पिता से ज्यादा बातें करने लगा, उनकी सलाह लेने लगा। उसने यह भी समझा कि आधुनिकता केवल वस्त्रों, मोबाइल, या रिश्तों के नए नामों में नहीं है — आधुनिकता वह है जो अनुभव और समझ के साथ संतुलन बनाकर आगे बढ़े।

अब जब वह किसी निर्णय पर आता, तो अपने पिता से चर्चा करता।

कुछ महीनों बाद रमेश की मुलाकात एक साधारण, शिक्षित और पारिवारिक मूल्यों में विश्वास करने वाली लड़की, सुरभि से हुई। वह एक स्कूल टीचर थी, लेकिन उसकी सोच में परिपक्वता थी।

रघुवीर सिंह और उनकी पत्नी को सुरभि बहुत पसंद आई। रमेश ने भी महसूस किया कि अब वह केवल अपने मन की नहीं, अपने माता-पिता के अनुभवों की भी सुन रहा है।

शादी के कुछ सालों बाद रमेश और सुरभि के एक बेटा हुआ। रमेश ने उसका नाम रखा "अनुभव"।

"क्यों ये नाम?" सुरभि ने पूछा।

"क्योंकि मेरे पापा ने मुझे यही सिखाया कि अनुभव सबसे बड़ा शिक्षक होता है," रमेश ने मुस्कराते हुए कहा।

आज रमेश अपने बेटे को वही सिखाना चाहता है, जो उसके पिता ने उसे बिना ज़ोर दिए सिखाया। वो जानता है कि समय बदलेगा, तकनीक बदलेगी, जीवनशैली बदलेगी, पर तजुर्बे की दीवार हर नए तूफान के सामने मजबूत खड़ी रहेगी। कहानी यही संदेश देती है कि आधुनिकता को अपनाना गलत नहीं है, लेकिन अनुभव को नकारना बुद्धिमानी नहीं है। माता-पिता के पास किताबों का ज्ञान भले न हो, लेकिन जीवन की पाठशाला ने उन्हें वह सिखाया है, जो किसी विश्वविद्यालय में नहीं मिलता।
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