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"दशानन लौट आए हैं"

"दशानन लौट आए हैं"

(छंद मुक्त शैली)

वे लौट आए हैं—
बिना रथ, बिना धनुष, बिना सोने की लंका,
पर भीतर जला रहे हैं घरों में अग्नियाँ।
अब वे सीता का हरण नहीं करते,
सीताओं को ही सीता होने से रोकते हैं।


गली में खेलती बालिका
अब एक आँकड़ा है समाचारों में,
उसके डर का कोई वजन नहीं
सरकारी तराजू पर।


आँगन अब खुले नहीं रहते
चूल्हे की आग से ज़्यादा
डर है आँखों की हवस से।


पनघट—
अब कोई मीठा प्रतीक नहीं,
वह एक युद्धभूमि है
जहाँ लौटती पनिहारिन
हर साँझ
थोड़ी कम सलामत लौटती हैं।


वे दशानन अब
किसी एक चेहरे में नहीं आते—
भीड़ बनकर आते हैं,
नेता बनकर, पड़ोसी बनकर,
शिक्षक, पुलिस, कभी पिता तक बनकर
अंदर ही अंदर उगते हैं,
और
हर बार एक नया सिर उग आता है।


शहर के चौराहे पर
एक पोस्टर लटकता है—
"बेटी बचाओ"
और उसी के नीचे
झुककर खड़ी है एक बच्ची
डरी हुई, अपने ही कपड़ों में
अपना चेहरा छुपाती।


आज हर घर में रावण हैं,
मगर दशहरा नहीं आता।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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