“राजनीति या पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड? लोकतंत्र पर काबिज वंशवाद की पड़ताल”
लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र,
भारतीय लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत है – “जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन”, लेकिन इस सिद्धांत की वास्तविकता वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में धूमिल होती जा रही है। देश में ऐसे कई राजनीतिक दल हैं जो लोकतंत्र का लबादा ओढ़कर पारिवारिक वंशवाद की निजी कंपनियों में तब्दील हो चुके हैं। जनता के नाम पर सत्ता में आकर ये दल न केवल अपने परिवार को राजनीतिक उत्तराधिकारी बना रहे हैं, बल्कि पूरी पार्टी की संरचना को निजी जागीर की तरह चला रहे हैं।
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद), उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और दक्षिण भारत की अनेक क्षेत्रीय पार्टियाँ अब विचारधारात्मक आंदोलनों के केंद्र न होकर, वंशवादी कंपनियाँ बन चुकी हैं। इस लेख में मैं विशेष रूप से राष्ट्रीय जनता दल के संदर्भ में यह उजागर करूँगा कि किस प्रकार यह पार्टी एक पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन चुकी है, जिसके ‘प्रोप्राइटर’ श्री लालू प्रसाद यादव हैं, और भविष्य के CEO पहले से तय हैं – उनके पुत्र।
लालू प्रसाद यादव: नेता नहीं, प्रोप्राइटर
राष्ट्रीय जनता दल की वर्तमान स्थिति पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह दल अब किसी लोकतांत्रिक संगठन की तरह संचालित नहीं हो रहा, बल्कि एक पारिवारिक उद्यम की भांति चलाया जा रहा है। लालू प्रसाद यादव का अध्यक्ष पद के लिए नामांकन इस बात की औपचारिकता मात्र है कि पार्टी पर उनका ही नियंत्रण है और आगे भी रहेगा।
लालू यादव राजनीतिक ‘छात्र’ ज़रूर हैं, लेकिन वे परीक्षा में बिना उत्तर लिखे ही ‘टॉपर’ बनने वाले छात्र हैं। उन्होंने जनता के बीच जातीय समीकरण और मज़ाकिया भाषणों से लोकप्रियता प्राप्त की और उसी आधार पर बिहार की सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रहे। लेकिन सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने जिस प्रकार प्रशासन को पंगु बनाया, भ्रष्टाचार को संस्थागत स्वरूप दिया और राज्य को 'जंगलराज' की ओर धकेला, वह किसी से छुपा नहीं है।
राजद में अध्यक्ष पद का कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। वहाँ ना तो खुले चुनाव होते हैं, ना कार्यकर्ताओं की राय ली जाती है, और ना ही किसी विरोधी आवाज़ को स्थान मिलता है। यह पूरी तरह से एकपक्षीय निर्णय है कि पार्टी की कमान लालू जी या उनके परिवार के ही पास रहेगी।
राजद: एक पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी
जिस प्रकार एक निजी कंपनी में मालिक का परिवार निदेशक मंडल का हिस्सा होता है, उसी प्रकार राजद में सभी प्रमुख पदों पर लालू परिवार का ही कब्जा है:
अध्यक्ष: लालू प्रसाद यादव (नाम मात्र का चुनाव)
उत्तराधिकारी: तेजस्वी यादव (पहले से ही उपमुख्यमंत्री और पार्टी का चेहरा)
राज्यसभा सदस्य: मीसा भारती (लालू की पुत्री)
अन्य पदों पर: लालू परिवार के रिश्तेदार या नज़दीकी
ऐसे में यह सवाल उठता है कि आम कार्यकर्ता की क्या भूमिका है? क्या यह पार्टी नहीं, बल्कि परिवार का व्यापारिक संस्थान बन चुकी है?
लोकतंत्र बनाम वंशवाद
लोकतंत्र की मूल आत्मा है – समान अवसर, विचारों की बहुलता और जनभागीदारी। लेकिन वंशवादी पार्टियों में इन सिद्धांतों की हत्या कर दी जाती है। राजद जैसे दलों में पार्टी संगठन का निर्माण नीचे से ऊपर की बजाय ऊपर से नीचे होता है। परिवार जो तय करता है, वही पार्टी का ‘सिद्धांत’ बन जाता है। इससे कार्यकर्ता केवल वाहवाही करने वाला ‘सेवक’ बन जाता है।
इसी तरह की स्थिति समाजवादी पार्टी में भी देखी जा सकती है। मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद यह पार्टी अखिलेश यादव की जागीर बन गई है। शिवपाल यादव जैसे अनुभवी नेताओं को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। बंगाल में ममता बनर्जी के बाद अब पार्टी की धुरी अभिषेक बनर्जी की ओर घूम रही है। क्या यही लोकतंत्र है?
सवाल यह नहीं कि परिवार राजनीति में क्यों है, सवाल यह है कि केवल परिवार क्यों है?
बहस यह नहीं है कि किसी राजनेता का पुत्र, पुत्री या रिश्तेदार राजनीति में क्यों है। यह तो सामान्य बात है। लेकिन जब पूरी पार्टी केवल परिवार तक सीमित हो जाए और बाहरी नेतृत्व को उभरने ही न दिया जाए, तब वह लोकतांत्रिक संगठन नहीं, निजी संस्था बन जाती है।
यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे एक दुकान का मालिक अपने बेटों को ही संचालक बना दे और किसी बाहरी कर्मचारी को कभी प्रोन्नति न दे। क्या ऐसे संस्थान में योग्यता, संघर्ष और जनसमर्थन का कोई स्थान रह जाता है?
लोकतंत्र को निगलता वंशवाद
वर्तमान भारत में वंशवाद ने लोकतंत्र की आत्मा को बुरी तरह से जकड़ लिया है। संसद और विधानसभाओं में वंशानुगत नेताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। पार्टियों के भीतर चुनाव लगभग बंद हो चुके हैं। टिकट बंटवारे से लेकर पदाधिकारियों की नियुक्ति तक सब कुछ ऊपर के ‘परिवार’ से तय होता है।
बिहार में राजद का उदाहरण लें – तेजस्वी यादव कभी छात्र राजनीति से नहीं जुड़े, उन्होंने कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं किया, कोई जनता की लड़ाई नहीं लड़ी। फिर भी वे पार्टी का चेहरा हैं। इसका कारण केवल यही है कि वे लालू जी के पुत्र हैं।
क्या देश केवल राजवंशों के लिए है?
क्या भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण लोकतंत्र को केवल चंद परिवारों के हवाले कर देना उचित है? क्या भारत के करोड़ों युवाओं को राजनीतिक नेतृत्व का अवसर नहीं मिलना चाहिए? क्या एक किसान का बेटा या एक मज़दूर की बेटी भी किसी पार्टी की अध्यक्ष बन सकती है?
जब पार्टियाँ वंशवादी ढांचे में बदल जाती हैं, तब वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘ना’ में देती हैं। वे केवल उन्हीं को मौका देती हैं जो उनके खून के रिश्तेदार होते हैं, न कि जो जनता की आवाज़ बन सकें।
भारतीय जन क्रांति दल की वैकल्पिक सोच
भारतीय जन क्रांति दल इस पूरे परिदृश्य में एक वैकल्पिक राजनीतिक सोच लेकर सामने आया है। हमारी पार्टी में न वंशवाद को प्रश्रय है और न किसी व्यक्ति-पूजा को। हम संगठन आधारित, विचार आधारित और कार्यकर्ता आधारित लोकतंत्र में विश्वास करते हैं।
हम मानते हैं कि पार्टी का नेतृत्व जनता में से आना चाहिए – चाहे वह शिक्षक हो, किसान हो, छात्र हो या महिला। राजनीति का उद्देश्य केवल चुनाव जीतना नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना, न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करना और जनता के प्रति उत्तरदायी रहना है।
निष्कर्ष
भारत की राजनीति को एक बार फिर वैचारिक विमर्श की ओर लौटने की ज़रूरत है। आज जिस प्रकार दल परिवारिक कंपनियों में बदलते जा रहे हैं, वह लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है। राजद, सपा और तृणमूल जैसी पार्टियाँ लोकतंत्र के नाम पर जनता को गुमराह कर रही हैं और केवल अपने परिवारों को सशक्त बना रही हैं। ऐसे में ज़रूरत है एक नयी जनक्रांति की – जिसमें राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं बल्कि सेवा, समर्पण और सिद्धांत हो। जनता को भी अब समझना होगा कि वह सिर्फ जाति, भावनाओं और चेहरों के नाम पर वोट न दे, बल्कि उन दलों और नेताओं को समर्थन दे जो लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने का संकल्प रखते हों।
लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र, राष्ट्रीय महासचिव, भारतीय जन क्रांति दल
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